Thursday, May 16, 2013

जानने के हक पर अंकुश की कवायद

निजता के बहाने जानने के अधिकार, मसलन सूचना के अधिकार पर अंकुश लगाने की कवायद तेज होती दिखार्इ दे रही है। हालांकि अधिकार के पर कतरने की शुरुआत तो तभी हो गर्इ थी, जब मनमोहन सिंह सरकार ने सीबीआर्इ को सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर कर दिया था।  प्रधानमंत्री ने केंद्रीय सूचना आयुक्तों के सातवें सम्मेलन में कहा है कि लोगों के जानने के अधिकार से अगर किसी की निजता का हनन होता है तो निश्चित रुप से इसका दायरा निर्धारित होना चाहिए, जिससे इसके निरर्थक प्रयोग पर प्रतिबंध लगे। क्योंकि जो जानकारियां व्यापक लोकहित की पूर्तियां करने वाली नहीं हैं, वे मानव संसाधन को क्षति पहुंचाने वाली हैं। प्रधानमंत्री की इस सिलसिले में यह चिंता तो समझ में आती है कि आरटीआर्इ का दुरुपयोग न हो, लेकिन इस बहाने कानून के पर ही कतर दिए जाएं, इस औचित्य को कतर्इ तार्किक नहीं ठहराया जा सकता ? वह भी तब, जब यह कानून आजादी के बाद एक ऐसा क्रांतिकारी कानून बनकर अपनी सार्थकता साबित कर चुका है।
आम नागरिक इसे कारगर हथियार के रुप में इस्तेमाल कर, भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ार्इ में सीधे आगे आकर लोकसेवकों और नौकरशाहों को जवाबदेही के लिए मजबूर कर रहा है।
सच कहा जाए तो सूचना का अधिकार विधायिका और कार्यपालिका की अटटालिकाओं में खोली गर्इ ऐसी इकलौती खिलाड़ी है, जो देश के आम नागरिक को जानने का हक देती है। लोकसेवकों और नौकरशाहों को पारदर्षी जवाबदेही सुनिश्चित करने को विवश करती है। लेकिन इस खुली खिड़की के दरवाजे बंद करने की कवायद लगता है, तेज होने जा रही है। सूचना के इस अचूक अस्त्र की धार शायद कुंद कर दी जाए। प्रधानमंत्री सूचना के अधिकार और निजता के अधिकार के बीच जिस संतुलन को बनाए रखने की बात कर रहे हैं, निजता के उस अधिकार की रक्षा तो संविधान सम्मत है, किंतु इसके हनन का भ्रम पैदा करके लोकहित से जुड़ी जानकारियों को गोपनीय बनाए रखने की कोशिशों का क्या औचित्य है, यह समझ से परे है। इस तरह की मांग तब ज्यादा उठ रही है, जब सेवानिवृत्त नौकरशाहों और न्यायाधीषों की संख्या बतौर सूचना आयुक्त बढ़ी है। भारतीय प्रशासनिक व पुलिस सेवा के अधिकारियों की अपने कार्यकाल में हमेशा ही कोशिश रही है कि काले- कारनामों पर परदा पड़ा रहे। सीबीआर्इ को सूचना के अधिकार से मुक्त करके भी केंद्र सरकार ने यही साबित किया था कि वह भ्रष्टाचार से जुड़ी गड़बडि़यों पर परदा डाले रखना चाहती है। विदेशों में जमा काले धन की वापिसी में अंहम भूमिका की दरकार सीबीआर्इ से है, लेकिन अब सीबीआर्इ से कोर्इ आरटीआर्इ कार्यकर्ता यह जानकारी हासिल नहीं कर सकता कि वह इस बाबद क्या काला-पीला कर रही है। सीबीआर्इ के आरटीआइ से मुक्त होने के बाद विदेश और वित्त मंत्रालयों से जुड़े विभाग प्रमुखों का भी सरकार पर दबाव है कि उन्हें इस दायरे से मुक्त किया जाए। इसके लिए ये लोग अंतरराष्ट्रीय मामलों व शर्तों और प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश के बाबत कंपनियों को दी जाने वाली रियायतों को सार्वजनिक करना नहीं चाहते। प्रवर्तन निदेशालय भी इस दायरे से छुटकारा चाहता है। ऐसे में विडंबना यह है कि देश के प्रधानमंत्री भी एक नौकरशाह हैं, लिहाजा नौकरशाह प्रधानमंत्री के रहते हुए आरटीआर्इ के नखदंत कब तक बचे रह सकते हैं ? वैसे भी केंद्रीय जांच ब्यूरो पर सूचना का अधिकार अधिनियम लागू न होने का फैसला संसद की मंशा की बजाए, सरकार के तब के सबसे आला अधिकारी रहे कैबिनेट सचिव केएम चंद्रशेखर की इच्छानुसार हुआ था। उन्होंने सेवानिवृत्त होने के ठीक एक दिन पहले इस सिफारिश पर सरकार का अंगूठा लगवा लिया था। यह सिथति सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अवेहलना तो थी ही, उन निर्वाचित सांसदों को भी ठेंगा दिखाना थी, जिन्होंने 2005 में संसदीय बहुमत से इस अधिकार को अधिनियम में बदला था। इस मनमानी से यह भी तय हुआ कि लोकतंत्र के शीर्शस्थ सदन लोकसभा और राज्यसभा से कहीं ज्यादा हैसियत देश के एक नौकरशाह में है।
न्यायालय और न्यायाध्ीश भी आरटीआर्इ के दायरे में आना नहीं चाहते। इन्हें दायरे में लाने की दृष्टि से मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर की थी। जिसका मकसद था कि इस कानून के तहत सुप्रीम व हार्इकोर्ट के न्यायाधीषों की पारिवारिक संपतित का ब्यौरा मांगा जा सके। लेकिन तत्कालीन न्यायमूर्ति केजी बालकृष्णनन ने इस मांग को इस दलील के साथ ठुकरा दिया था कि उनका दफतर सूचना के दायरे से इसलिए बाहर है, क्योंकि वे संवैधानिक पदों पर नियुक्त हैं। जबकि विधि और कार्मिक मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में न्यायपालिका को सूचना कानून के दायरे में लाने की सिफारिश की है। इस समिति ने यह भी दलील दी थी कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी लोकसेवक हैं, इसलिए सूचना का अधिकार उन पर लागू होना चाहिए। लेकिन यहां विडंबना है कि संसद न्यायपालिका को कोर्इ दिशा-निर्देश नहीं दे सकती और न्यायपालिका का विवेक मानता है कि वह सूचना के अधिकार से उपर है। यहां गौरतलब है कि जब यह अधिकार संसद पर लागू हो सकता है, तो न्यायपालिका पर क्यों नहीं ? यदि प्रजातंत्र में प्रजा सर्वोपरि है तो नागरिक को न्यायपालिका के क्षेत्र में जानकारी लेने का अधिकार मिलना चाहिए। यह तब और जरुरी हो जाता जब कोलकाता उच्च नयायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन को भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते, संसद में महाभियोग लाकर बर्खास्त किया जाता है। न्याय-प्रकि्रया को तो आरटीआर्इ से मुक्त रखा जाए, किंतु यदि किसी न्यायाधीश की संपतित में अनुपातहीन वृद्धि हुर्इ है तो उसे इस कानून के दायरे में लाना जरुरी है। अब यहां संकट यह है कि आरटीआर्इ को शिथिल करने की मंशा रखने वाली सरकार बिल्ली के गले में घंटी बांधने का जोखिम कैसे उठा सकती हैं ?
प्रधानमंत्री की यह दलील कतर्इ न्याय संगत नहीं है कि इससे निजी गोपनीयता का हनन और मानव संसाधन को क्षति पहुंच रही है। किसी अधिकारी की निजी गोपनीयता तो तब भंग होती, जब उससे इस कानून के तहत अंतरंग प्रसंग या घरेलू कि्रया-कलापों की जानकारी मांगी जाती ? संभव है, सवा अरब की आबादी में एकाध ऐसी बेहूदी मांग भी किसी ने की हो, लेकिन इसे बहुमत की मांग नहीं ठहराया जा सकता। और फिर ऐसी मांग पेश आर्इ भी है तो उसकी पूर्ति करना आरटीआर्इ में कहां बाध्यकारी है ? ऐसी अनुचित मांगों को ठुकराने का पर्याप्त अधिकार आरटीआर्इ में है। इसके उलट वास्तव में निजी हानि और मानव संसाधन की क्षति तो उन भंडाफोड़ करने वाले कार्यकत्ताओं की हुर्इ है, जिन्होंने जान जाखिम में डालकर जानने के अधिकार का सदुपयोग किया। सत्येन्द्र दुबे समेत अब तक 17 आरटीआर्इ कार्यकर्ता मारे गए हैं। क्या एकाध भ्रष्ट नेता या अधिकारी ऐसा है, जिसकी जानकारी मांगने पर जान जोखिम में आर्इ हो और परिवार को मानवीय क्षति का सामना करना पड़ा हो ? तय है, नहीं। भ्रष्टाचार से जुड़ा मामला जितना संगीन होता है, उससे जुड़े नेता, नौकरशाह और ठेकेदारों का गठजोड़ उतना ही शकितशाली होता है, इसलिए अव्वल तो पारदर्षिता से जुड़ी जानकारियां देने में टाला-टूली की जाती है और यदि जानकारी किसी बड़े घोटाले अथवा माफिया सरगना से जुड़ी है तो कार्यकर्ता के जान के लाले भी पड़ जाते हैं। इस लिहाज से कार्यकर्ताओं की सरुक्षा के लिए विहसलब्लोअर कानून को संसद में लाने की मांग भी उठ रही है। विधि आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने भी केंद्र सरकार से इस कानून को वजूद में लाने की पैरवी की है। लेकिन इस कानून को पारित होने में सबसे कानून को पारित होने में सबसे बड़ी बाधा कार्यपालिका है। वह जानती है कि आरटीआर्इ की छत्रछाया में वजूद में आए पूर्णकालिक इन भण्डाफोड़ कार्यकर्ताओं को कानूनी सुरक्षा मिल गर्इ तो सरकारी तंत्र को तो काम करना ही मुश्किल हो जाएगा। इसमें कोर्इ दो राय नहीं कि चंद पत्रकारों अथवा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सूचना अधिकार को प्रतिष्ठा व आजीविका हासिल करने का धंधा बना लिया है, लेकिन दुरुपयोग तो राजस्व, पुलिस व वन कानूनों का भी होता है, बावजूद ये कानून अमल में हैं। आरटीआर्इ का भी यदि कोर्इ बेजा इस्तेमाल करता है तो उस पर दण्डात्मक कार्यवाही के प्रावधान है, लेकिन फिर वही कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?

Wednesday, October 26, 2011

आरटीआई के बारे में नहीं जानते हम

आप सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमाल करते हैं? क्या आपको मालूम है कि आप अपने पास के डाक घर से केन्द्रीय सरकार के दफ्तरों में सूचना अधिकारियों को बिना किसी डाक खर्च के अपना आवेदन, प्रथम अपील और दूसरी अपील कर सकते हैं?
मेरा अपना आकलन है कि ये डाक घरों के जरिये मुफ्त में सूचनाएं मांगने का आवेदन पत्र भेज सकते हैं, यह जानकारी देश के 0.5 प्रतिशत लोगों को भी नहीं है. यह संसद जानती है. देश भर के 4707 डाकघर के लोग जानते हैं. लेकिन जिनके लिए सूचना का अधिकार कानून बनाया गया है, वे नहीं जानते.

लोकतंत्र में संचार व्यवस्था का अध्ययन करें तो आप मजे में यह तथ्य जान सकते हैं कि ढेर सारी और विकराल संचार व्यवस्था है लेकिन लोगों के पास जरूरी सूचनाएं नहीं भेजने के तरीके भी मौजूद है. संसद में आर्थिक सर्वेक्षण पेश करते हुए सरकार ने अपनी उपलब्धियों का आदतन एक खाका पेश किया. उसमें यह भी दावा किया गया ‘संचार विभाग ने 4707 केंद्रीय सहायक लोक सूचना अधिकारी बनाए हैं, जिनमें से देश की प्रत्येक तहसील में कम से कम एक अवश्य है.

कम्प्यूटरीकृत ग्राहक सेवा केंद्र के प्रभावी अधिकारी को विभाग के लिए केंद्रीय सहायक लोक सूचना अधिकारी के रूप में कार्य करने के लिए तथा उन केंद्रीय विभागों, संस्थानों की ओर से आरटीआई अनुरोध तथा अपील प्राप्त करने के लिए पहचाना गया है; जिन्होंने आरटीआई अधिनियम की धारा 5 (2) तथा 19 के अनुसरण में डाकघरों में यह सुविधा प्राप्त करने की सहमति दी है.

डाकघर में बनाए गए केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी आरटीआई अधिनियम की धारा 19 की उपधारा (1) के अंतर्गत केंद्रीय सरकार के विभागों व संस्थानों के केंद्रीय सूचना अधिकारी, वरिष्ठ अधिकारी अथवा केंद्रीय सूचना आयोग को भेजने के लिए आरटीआई अनुरोध और अपील प्राप्त करते हैं.

सूचना का अधिकार कानून के बनने के बाद समीक्षा यह की जानी चाहिए कि इस कानून की जानकारी देश के कितने प्रतिशत लोगों तक पहुंच पाई है और जिन लोगों तक नहीं पहुंच पाई है, उन तक इस कानून को कैसे पहुंचाया जाए. दूसरी बात कि मांगे जाने पर सूचनाएं देने में विभाग व अधिकारी किस-किस तरह की अड़चनें खड़ी करते हैं और उन अड़चनों को दूर करने की पहल सरकार को करनी चाहिए थी. इसके लिए सरकार महज एक विज्ञापन जारी करे और सूचनार्थी (सूचना मांगने वाला) से अड़चनों व बाधाओं के बारे में जानकारी मांगे तो उसे सूचना के अधिकार कानून के लागू होने का सच पता चल जाएगा.

तीसरी बात कि सरकार को यह कोशिश करनी चाहिए थी कि यह कानून और कैसे ज्यादा मजबूत हो. सरकार को इस कानून का इस्तेमाल करने वालों का दायरा बढ़ाने के लिए इस पहलू पर विचार करना चाहिए था कि देश का एक बड़ा हिस्सा जो अपनी गरीबी के कारण इस कानून का इस्तेमाल नहीं कर पाता है, वह कैसे इसका इस्तेमाल करे? देश में गरीबी रेखा के नीचे की पहचान और उसे कार्ड देने का सरकार का एक अपना फंडा है, सूचना का अधिकार कानून उस फंडे को लांघने की जरूरत जाहिर करता है.

सूचना के अधिकार कानून की कई ऐसी धाराएं हैं, जो अब तक लागू नहीं की जा सकी हैं. इनमें विभागों व संस्थानों द्वारा सूचना के अधिकार कानून की धारा 4(1) के तहत कानून लागू होने के 120 दिनों के अंदर अपनी ओर से विभाग से जुड़ी सूचनाएं लोगों को बताने के लिए कहा गया था. लेकिन आप केवल विभागों और संस्थानों की वेबसाइट देख लें, आपको यह अंदाजा लग जाएगा कि सरकारी विभाग व संस्थान किस हद तक आदतन सूचनाएं छुपाने की कोशिश करते आ रहे हैं.

इससे आगे सूचना के अधिकार कानून के लिए बने केंद्रीय सूचना आयोग लगातार कमजोर होता जा रहा है. जो उसके तेवर कानून बनने के कुछ दिनों के बाद तक दिखे, अब वह अनुभवी व वफादार नौकरशाहों का जमघट के रूप में दिखने लगा है. लगता है कि सरकार की मंशा यह है कि भारी-भरकम मशीनरी का एक ढांचा खड़ा भी दिखे और वह काम भी न करे. सूचना आयोग ने अपनी स्थिति यह बना ली है कि मांगी गई सूचनाएं न देने का फैसला करने वाले अधिकारियों व संस्थानों को साल-साल भर का मौका सूचनाएं न देने के लिए मिल जाता है.

सूचना आयोग में दूसरी अपील पर सुनवाई अदालतों की तरह कई-कई महीने बाद होने लगी है. छोटी-मोटी तकनीकी खामियों के आधार पर अपीलों को खारिज किया जाने लगा है. सूचना आयोग सूचना न देने वाले संस्थानों व अधिकारियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करने से या तो बचता है या फिर कार्रवाई नहीं कर पाता है. केंद्रीय सूचना आयोग के कुल निर्धारित पदों की संख्या में लगभग 50 प्रतिशत सूचना आयुक्तों के पद खाली हैं.

दरअसल, सूचना का अधिकार कानून को सरकार विज्ञापन की तरह इस्तेमाल करना चाहती है. वह केवल ‘शाइिनंग इंडिया’ की तरह दिखना चाहती है. इसीलिए वह अपनी उपलिब्धयों में इस कानून की तो गिनती करती है लेकिन इसकी जमीनी हकीकत से मुंह चुराती है. अभी तक इस कानून की पहुंच समाज के उस हिस्से तक ही हो पाई है, जो कानून का अपने हितों में इस्तेमाल करना जानता है. यह हिस्सा एक छोटे से मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग का है जो सत्तारूढ़ राजनीति व सरकारी दफ्तरों के इर्द गिर्द अपना व अपने जैसों का हित-अहित प्रभावित होते देखता है.

जाहिर सी बात है कि ऐसी स्थिति में जिस तरह की सूचनाएं मांगी जाएंगी, उससे सत्ताधारी पार्टी या पार्टयिां प्रभावित हो सकती हैं. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस कानून को बाधा के रूप में पेश कर उन लोगों की इच्छाओं का सम्मान किया है जो इस कानून की वजह से अपना घाटा महसूस करते रहे हैं. प्रधानमंत्री जब कोई बात कहते हैं तो वह एक नीतिगत बात की तरह समाज में संप्रेषित होता है. लेकिन समाज में लोकतंत्र की चेतना अभी जिस स्तर पर पहुंच चुकी है, वहां सूचना के अधिकार जैसे कानून को कमजोर करने की कोई भी कोशिश राजनीतिक नुकसान के रूप में सामने आ सकती है.

इस तरह के कानून जब बनते हैं तो वह कई बार खुद को जख्म दे सकते हैं लेकिन लोकतंत्र में किसी कानून के सफल होने का मानदंड यह बनना चाहिए कि उसकी वजह से लोकतंत्र की चेतना का कितना विस्तार हुआ है. सूचना के अधिकार कानून को ज्यादा से ज्यादा उपयोगी बनाने की कोशिश, उसमें लोगों की ज्यादा भागीदारी से ही पूरी की जा सकती है.

केंद्रीय सूचना आयोग के लिए एक सूचना कार्यकर्ता सलाहकार समिति का भी गठन किया जाना चाहिए, जो सूत्रबद्ध तरीके से आयोग व सरकार को इस कानून के पूरी तरह लागू नहीं होने के छोटे-बड़े सभी अड़चनों की जानकारी दे सके.

Thursday, July 14, 2011

रिश्वत देने में अग्रणी संगठन

अक्सर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश में गरमागरम बहस चलती रहती है किन्तु मैं अनुभव करता हूँ कि भ्रष्टाचार की बहस में से मौलिक बात गायब है | सोम प्रकाश के मामले में हमारे सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि रिश्वत मात्र अनुचित काम को करने के लिए ही नहीं दी जाती है अपितु उचित कम को जल्दी करवाने के लिए भी दी जाती है क्योंकि समय ही धन है| विवेकाधिकार भ्रष्टाचार को जन्म देती है|इससे निष्कर्ष निकलता है कि भ्रष्टाचार को कम करने के लिए समय सारिणी निर्धारित कर व विवेकाधिकार समाप्त कर इस बुराई पर नियंत्रण पाया जा सकता है|


दूसरी ओर देखें तो हमें ज्ञात होगा कि व्यापारी एवं उद्योगपति वर्ग ने अपने हितों की रक्षा के लिए संगठन बना रखें हैं| विभिन्न प्रकार की कर चोरी , बिजली चोरी आदि के मामलों में भी ये संगठन अपने सदस्यों का बचाव करते हैं| सदस्यों से मासिक या वार्षिक वसूली की जाती है जो संगठन के पदाधिकारियों द्वारा वाणिज्यिककर , आयकर , उत्पाद शुल्क ,चुंगी , बिजली विभाग, खाद्य सुरक्षा आदि के अधिकारियों को भेंट स्वरूप दे दी जाती है और एवज में इन अपराधियों को अभयदान दे दिया जाता है| किसी वस्तु विशेष पर कर आदि में मंत्रालय या सचिवालय स्तर से राहत के लिए भी यही सुगम मार्ग अपनाया जाता है| रिश्वत के इस खेल में लेने देने वाले दोनों पक्षकार सुरक्षित रहते हैं| सदस्यों को व्यक्तिगत मोलभाव नहीं करना पडता और अधिकारियों को वसूली के लिए जगह जगह नहीं जाना पडता है| व्यापारी एवं उद्योगपति वर्ग द्वारा दी गयी इन भेंटों को वस्तु/सेवा की कीमत में जोड़कर आम जनता से वसूल कर लिया जाता है|इस प्रकार रिश्वत का अंतिम भार जनता पर ही पडता है |
इसी प्रकार परिवहन के मामलों में भी ऑटो चालक अपने संगठनों के माध्यम से स्थानीय ट्रेफिक पुलिस को हफ्ता देते हैं| बड़े परिवहन संचालक संगठन भी परिवहन एवं पुलिस को एक मुस्त अभयदान शुल्क देते हैं|ट्रक ड्राईवर अपने पास डायरी रखते हैं जिसमें समय समय पर पुलिस को रास्ते में दी जाने वाली रकम का पुलिस के हाथ से ही इंद्राज करवाकर हिसाब मालिक को सौंप देते हैं| ऐसा नहीं है कि भ्रष्ट लोक सेवक पकडे ही नहीं जाते हों किन्तु सशक्त व प्रभावी न्यायिक व्यवस्था के अभाव में वे दण्ड से बच जाते हैं |

चूँकि अपराधियों को दण्ड देना न्याय तंत्र का कार्य है और वह अभी तक इसमें अपेक्षा तक सफल नहीं है| अतः देश के गुणीजनों व प्रबुद्ध वर्ग से मेरा प्रश्न है कि जब तक देश में यह विकलांग न्याय प्रणाली है और रिश्वत देने वाले संगठन कार्यरत हैं तब तक भ्रष्टाचार पर नियंत्रण का कौनसा मार्ग है और कोई भी लोकपाल कानून कितना कारगर होगा इसका भी सहज अनुमान लगाया जा सकता है|भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए मात्र लोकपाल ही नहीं अपितु देश की न्यायिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन से मौलिक सुधार कर इसे ब्रिटिश काल से निकालकर विश्व स्तरीय बनाने की महती आवश्कता है |

Saturday, July 9, 2011

गोरे लोगों के काले कानूनों की मजबूत बेडियाँ

कानून और न्याय व्यवस्था का वैश्वीकरण


हमारे देश में विभिन्न सेवाओं के मानकीकरण व वैश्वीकरण की बात समय समय पर उठती रही है . किन्तु शताब्दियों पुराने अंग्रेजी कानूनों तथा उनके अधीन स्थापित न्याय व्यवस्था में कोई मौलिक परिवर्तन करने की इच्छाशक्ति का हमारे नेतृत्व में अभाव रहा है . नए मौलिक कानून नहीं बना कर शताब्दियों पुराने कानूनों में बार बार संशोधन करना समयातीत जीर्णशीर्ण कपडे की मरम्मत कर काम चलाने के समान है .जो कानून जिस देश , काल ,परिस्थितियों और शासन प्रणाली के लिए उपयुक्त थे वे सदैव उपयुक्त नहीं हो सकते . वैसे भी साम्राज्यवाद एकचक्रिय व विस्तारवादी धारणा पर आधारित है जबकि लोकतंत्र इसके विपरीत जनकल्याण के दर्शन की उपज है .आम व्यक्ति को प्रभावित करने वाले हमारे विद्यमान कानूनों की समसामयिक विदेशी कानूनों से तुलना करें तो हमें ज्ञात होगा कि हम सामान्य कानून तथा न्याय व्यवस्था में अंतर्राष्ट्रीय स्तर से बहुत पीछे हैं .फिर भी पूंजीपति वर्ग को प्रभावित करने वाले आयकर व कंपनी अधिनयम जैसे कानूनों में प्रतिवर्ष अनेक परिवर्तन किये जाते रहते हैं. हमारे लोक सेवक तथा न्यायालय आज भी साम्राज्यवादी अधिकारों का प्रयोग करते हैं जबकि जनता अभी भी जनतांत्रिक अधिकारों से वंचित है .यह सब इसलिए संभव है कि हमने अभी तक नए कानून बनाकर लोक सेवकों को दायित्व बोध नहीं कराया है तथा उनकी मनमानी स्वयंभू प्रक्रियाएं जारी हैं.
आज स्वतंत्रता के 64 वर्ष बाद भी राजपुरुष लोक सेवकों के अधिकारों में कोई कटौती अथवा दायित्वों में कोई बढ़ोतरी नहीं की गयी है जिससे यह सन्देश मिलता है कि हमारा लोकतंत्र अभी भी लोकसेवकों के बंधक है .विधि निर्माण में अत्यंत चतुराईपूर्वक कूटनीतिक शब्दजाल का प्रयोग किया जाता है ताकि किसी सरकारी सेवक की कोई जिम्मेदारी नहीं बने . यद्यपि मणिपुर राज्य की लोकप्रिय सरकार ने लोक सेवक दायित्व अधिनियम ,2006 बनाकर लोक सेवकों का दायित्व निर्धारित करने का प्रावधान किया है और अन्य सभी राज्य सरकारों व केन्द्र सरकार को ऐसा कानून बनाकर स्थित पर नियंत्रण पाना चाहिए .


हमारी व्यवस्था में किसी भी अधिकारी को दायित्वधीन बनाये जाने से परहेज किया गया है . हमारे यहाँ मुख्य न्यायाधिपति को कहीं भी जिम्मेदार नहीं बताया गया है . इंगलैंड में न्यायालय अधिनियम,2003 की प्रथम धारा में ही कहा गया है कि लोर्ड चांसलर (सुप्रीम कोर्ट का मुखिया) न्यायालयों के प्रभावी एवं दक्षतापूर्वक संचालन सुनिश्चित करने के कर्तव्याधीन है तथा वह अपने कर्तव्य निष्पादन की रिपोर्ट प्रतिवर्ष दोनों सदनों के समक्ष रखेगा व धारा 58 के अनुसार न्यायालयों के लिए वहाँ अलग से स्वतंत्र निरीक्षणालय स्थापित है . हमारी प्रणाली में उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को अधीनस्थ न्यायालयों पर न्यायिक एवं निरीक्षक दोनों वरिष्ठता प्राप्त है अतः निरीक्षण प्रणाली का कोई उपयोग व महत्व नहीं रह जाता है .किसी भी निकाय के सुचारू कार्यरत होने के लिए निरीक्षण एवं प्रशासनिक इकाई का अलग अलग होना आवश्यक है. निरीक्षण हमेशा अचानक होना चाहिए तथा पूर्व नियोजित निरीक्षण से स्वयं निरिक्षण का औचित्य समाप्त हो जाता है . न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए यह भी समान रूप से आवश्यक है कि इंग्लॅण्ड की भांति स्वयं न्यायपालिका का प्रशासनिक खंड, कम से कम हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट स्तर पर, न्यायिक कृत्यों से अलग एवं स्वतंत्र हो .यदि एक ही अधिकारी के पास न्यायिक एवं प्रशासनिक दोनों शक्तियां केंद्रित हों तो उनके प्रयोग पर प्रश्न चिन्ह लग सकता है .

इंग्लॅण्ड में आपराधिक प्रक्रिया नियम 2010 के नियम 3.2 के अंतर्गत अदालत के कर्तव्य का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि मामले की शीघ्र प्रगति के लिए एक समय सारिणी बनायीं जायेगी दूसरी ओर हमारे यहाँ स्वयम्भू प्रक्रिया अपनाकर मामले को अनिश्चित काल के लिए स्थगित करने हेतु “उचित समय पर” (Due Course) में डाल दिया जाता है जबकि ऐसे अस्पष्ट शब्दों का प्रयोग किसी नियम में नहीं है और संविधान के अनुसार किसी भी न्यायालय को सरकार की सहमति के बिना/कानून से असंगत प्रक्रियागत नियम बनाए का कोई अधिकार नहीं है .इस प्रकार संसद द्वारा बनाये गए कानूनों को भी प्रशासनिक आदेश की आड़ में निष्प्रभावी बनाना हमारे न्यायतंत्र के लिए बांयें हाथ का काम है . दूसरी ओर उस “उचित समय पर” में डाल दिये गए प्रकरण से बाद में दर्ज प्रकरणों में भी कुछ अपवित्र कारणों से पहले निर्णय दे दिए जाते हैं. न्यायालयों द्वारा इस प्रकार अनुच्छेद 14 द्वारा गारंटीकृत विधि के समक्ष समानता के अधिकार का खुला उल्लंघन किया जाता है और ऊपरी न्यायालय, जिन पर संविधान (अनुच्छेद 227)तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता(धारा 483)के अंतर्गत पर्यवेक्षण का दायित्व डाला गया है, मूकदर्शक बने रहते हैं.
विधि का अच्छा शासन कहता है कि आपवादिक परिस्थितियों को छोड़कर प्रकरणों का निपटान उनके दर्ज होने के वरीयता क्रम में हो .हमारी न्यायिक व्यवस्था में जवाबदारी का पूर्णतया अभाव है व पुनरीक्षण तथा मूल मामले दोनों के निपटान में समान समय लिया जाता है जबकि दोनों के लिए वांछित समय व श्रम में 1 व 30 का अनुपात हाई कोर्ट द्वारा माना गया है . वकीलों द्वारा स्थगन की मांग इसके लिए कोई स्वीकार्य बहाना नहीं हो सकता क्योंकि न्याय प्रशासन न्यायाधीशों का कार्य है जिसके लिए उन्हें जनता के धन में से भुगतान किया जाता है ,न कि वकीलों का और वे इसके लिए जिम्मेदार हैं.

हमारे न्यायालयों की प्रक्रिया खुली होकर भी गुप्त है क्योंकि एक गैर पक्षकार को किसी मामले का निरीक्षण आपवादिक परिस्थितियों में ही अनुमत है जबकि अमेरिका में न्यायिक अभिलेख इन्टरनेट पर ही उपलब्ध है और इंग्लॅण्ड में सुप्रीम कोर्ट नियम 2009 के नियम 39 (3) में प्रावधान है कि रजिस्ट्री द्वारा धारित सभी प्रलेख प्रेस अथवा जन सामान्य द्वारा निरीक्षण किये जा सकेंगे किन्तु राष्ट्रीय सुरक्षा, जन हित अथवा वाणिज्यक गोपनीयता के कारणों से रजिस्ट्रार मना कर सकेगा . अर्थात हमारे यहाँ निरीक्षण अपवाद है जबकि इंग्लॅण्ड में मनाही आपवादिक मामलों में ही की जा सकती है . अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाहियों की साथ साथ इलेक्ट्रोनिक रिकॉर्डिंग होती है तथा वह इन्टरनेट पर भी उपलब्ध रहती है .इंगलैंड की न्यायप्रणाली में बड़ी पारदर्शिता है तथा वहाँ मात्र सरकारी रिपोर्टें ही नहीं अपितु निजी संगठनों द्वारा किये गए सम्बंधित सर्वेक्षणों के विवरण स्वयं न्याय मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध है. इंग्लॅण्ड में सूचना के अधिकार को पर्याप्त महत्व दिया गया है तथा यह न्याय मंत्रालय का विषय है . इंग्लॅण्ड में सुप्रीम कोर्ट नियम 2009 एक सरल 19 पृष्ठीय प्रलेख है जबकि हमारे सुप्रीम कोर्ट नियम ,1966 जटिल 200 पृष्ठीय प्रलेख है .
हमारे यहाँ विधि आयोग मात्र एक राजकीय आदेश से स्थापित निकाय है जिसके दायित्व , अधिकार या उपयोग किसी संसदीय अधिनियम द्वारा परिभाषित नहीं हैं .स्मरण रहे कि वर्ष 1964 में स्थापित हमारा केन्द्रीय सतर्कता आयोग भी वर्ष 2003 से पूर्व इसी प्रकार बिना संसदीय कानून के कार्यरत निकाय रहा है . हमारे यहाँ विधि आयोग, राष्ट्रीय पुलिस आयोग आदि अपनी रिपोर्टें सम्बंधित मंत्रालय को प्रस्तुत करके अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं . जब तक शासन में पारदर्शिता अपनाते हुए इन रिपोर्टों पर की गयी कार्यवाही , मानी अथवा न मानी गयी सिफारिशों से संसद के माध्यम से जनता को अवगत नहीं कराया जाता तब तक इन कमेटियों , आयोगों पर होने वाला व्यय जनता के दृष्टिकोण से अपव्यय है और ये रिपोर्टें रद्दी कागज के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकती .इसके विपरीत इंग्लॅण्ड में विधि आयोग 1965 के विधि आयोग अधिनियम द्वारा स्थापित एक निकाय है तथा धारा 3 क के अनुसार विधि आयोग के प्रस्तावों के मानने के सम्बन्ध में संसद के दोनों सदनों के समक्ष रिपोर्टें प्रस्तुत की जाती हैं. हमारे देश में भी संसदीय अधिनयम बनाकर विभिन्न कमेटियों एवं आयोगों की कार्यप्रणाली पर नियंत्रण रखने की आवश्यकता है .इनके द्वारा प्रस्तुत रिपोर्टों पर सम्बंधित मंत्रालय द्वारा 30 दिन के भीतर प्रस्तावों के मानने के सम्बन्ध में संसद के दोनों सदनों के समक्ष रिपोर्टें प्रस्तुत की जानी चाहिए

Sunday, February 20, 2011

सूचना का अधिकार (RTI) वर्तमान स्थिति एवं चुनौतियाँ

सरकार, सरकारी योजनाएँ और तमाम सरकारी गतिविधियाँ हमारे दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं । आम आदमी से जुड़े कई मामले प्रशासन में बैठे भ्रष्ट, लापरवाह या अक्षम कर्मचारियों/अधिकारियों के कारण फलीभूत होने के बजाय कागज का पुलिंदा बनकर रह जाती है । सन्‌ १९४७ में मिली कल्पित आजादी के बाद से अब तक हम मजबूर थे । व्यवस्था को कोसने के सिवाय
कुछ नहीं हैं, क्योंकि आज हमारे पास ‘सूचना का अधिकार’ (RTI) नामक औजार है, जिसका प्रयोग करके हम सरकारी विभागों में अपने रूके हुए काम आसानी से करवा सकते हैं । इस हेतु हमें ‘सूचना का अधिकार अधिनियम २००५’ की बारिकियों को ध्यानपूर्वक समझना और समझाना होगा । सामाजिक क्षेत्र में यह कानून ग्राह्य हो, इसके लिए बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, महिलाओं, युवाओं के विशेष रूप से जागरूक किए जाने की आवश्यकता है । भगत सिंह ने क्रांति को जनता के हक में सामाजिक एवं राजनीतिक बदलाव के रूप में देखा था । सूचना का अधिकार (RTI) को हल्के अंदाज में न लेकर एक बड़े आंदोलन के रूप में देखें, सोंचे एवं मूल्यांकन करें तभी वास्तव में इसकी सार्थकता सिद्ध होगी । ६३ साल पूर्व मिली आजादी वास्तव में सत्ता के अदला-बदली की औपचरैकता भर बनकर रह गई । शोषितों का शोषण नहीं रूक बल्कि आम आदमी की परेशानियाँ और बढ गई । आज ज्यादातर लोग प्रशासन/व्यवस्था को मन ही मन गाली देकर अपनी भड़ास निकल लेते हैं, परन्तु क्या इससे कुछ समाधान मिल सकता है । समाधान हेतु व्यक्‍ति को व्यवस्था परिवर्तन का अंग बनकर उस दिशा में सक्रिय भूमिका निभाने हेतु तत्पर होना पड़ेगा । क्या है सूचना का अधिकार अधिनियम २००५? ःइस अधिनियम के तहत आवेदन करके हम किसी भी विभाग से कोई भी जानकारी माँग सकते हैं और अधिकारी/विभाग माँगी गई सूचना को उपलब्ध करवाने के लिए बाध्य है, बशर्ते वह सूचना माँगने के तरीके की शैली में हो । यही बाध्यता/जबाबदेही ना केवल पारदर्शिता की गारंटी है, बल्कि भ्रष्टाचार के उन्मूलन का तथ्य भी निहित है । वास्तव में यह अधिनियम आम आदमी के लिए आशा की किरण नहीं बल्कि आत्मविश्‍वास भी लेकर आया है । इस औजार रुपी अधिनियम का प्रयोग करके हम अपनी आधी-अधूरी आजादी को संपूर्ण आजादी बना सकते हैं । इस संपूर्ण आजादी को पाने के लिए अधिनियम
को गहराई से अध्ययन कर ज्यादा से ज्यादा लोगों को जागरूक कर संपूर्ण क्रांति का शंखनाद करना पड़ेगा । सूचना का अधिकार करेगा क्रांति का शंखनाद ःभगत सिंह ने कहा था- हमारी लड़ाई, हमारी कमजोरियों के खिलाफ है । हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्‍वास करते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्‍ति को पूर्ण शांति और स्वतंत्रता का अवसर मिल सके । क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा सड़ाध को ही आगे बढ़ाते हैं । लोगों के परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की जरूरत है । क्रांति एक ऐसा करिश्‍मा है, जिससे प्रकृति भी स्नेह करती है, क्रांति बिना सोची-समझी हत्याओं और आगजनी की दरिन्दगी भरी मुहिम नहीं है और न ही क्रांति मायूसी से पैदा हुआ दर्शन ही है । वास्तव में भगत सिंह के विचारों को जीवन में आत्मसात कर क्रियान्वित किए बिना क्रांति संभव नहीं । वैचारिक क्रांति/आंदोलन को धार देने के साथ-साथ उस हेतु समयबद्ध कार्यक्रम व दूरदर्शी योजना बनानी होगी तभी हम सफल हो सकते हैं और अपने अधिकारों को पा सकते हैं । दूसरे के कंधों पर बंदूक रखकर चलाने के बजाय हमें स्वयं को प्रशिक्षित करना चाहिए । जिंदगी के आम जरूरत की तरह आगे आनेवाले समय में सूचना का अधिकार (RTI) भी एक महत्वपूर्ण आवश्यकता की श्रेणी में आ जाएगी । सामाजिक परिवर्तन सदा ही सुविधा संपन्‍न लोगों के दिलों में खौफ पैदा करता रहा है । आज सूचना का अधिकार धीरे-धीरे ही सही परन्तु लगातार सफलता की ओर बढ़ रहा है । पुरानी व्यवस्था से सुविधाएँ भोगनेवाला तबका भी इस अधिनियम का पैनापन खत्म करने की कोशिश में प्रारम्भ से ही रहा है । कुछ सूचना आयुक्‍तों का रवैए से इस कानून का बंटाधार होने
की आशंका भी प्रबल हो गयी है । सूचना का अधिकार से जुड़े हुए कार्यकत्ताओं का उत्पीड़न अभी भी जारी है और केन्द्रीय सूचना आयोग, केन्द्र एवं राज्य सरकार उन कार्यकर्त्ताओं को पूर्णसुरक्षा देने, बेवजह तंग होने से बचाने में असमर्थ है । इस हेतु उनकी कोई नीति/नियमावली ही नहीं है । कई महीनों इंतजार के बाद भी माँगी गई सूचनाएँ नहीं मिलती या फिर अधूरी और भ्रामक मिलती है । उसके बाद भी यदि कोई आवेदक, सूचना आयोग में जाने की हिम्मत भी करता है, तब भी कई आयुक्‍त तो प्रशासन के खिलाफ कोई कार्रावाई नहीं करते । स्थिति ऐसी है कि हम तमाम कोशिशों के बावजूद आज भी उसी जगह खड़े है, जहाँ कई दशक पहले खड़े थे । क्रांतिकारियों की कुर्बानियाँ बेकार हो रही है जिनके लिए आजाद हिंदुस्तान से आजादी के बाद वाला हिंदुस्तान ज्यादा महत्वपूर्ण था । क्या उन क्रांतिकारियों को दी गई यातनाएँ नहीं झुका पाई? हमारा उत्पीड़न या कोई भी असफलता क्या हमारे इरादों को तोड़ सकती है, यह यक्षप्रश्न आज हमारे समक्ष खड़ा है ? सूचना का अधिकार से जुड़े कार्यकर्त्ताओं को इस अधिकार को और अधिक मजबूती से प्रयोग करने एवं इसके पूर्ण सशक्‍तिकरण गेतु संगठित एवं आंदोलित होना चाहिए । देश हमारा है, सरकार भी हमारी है, इसलिए अपने घर को साफ रखने की जिम्मेवारी भी हम सबकी है । इसलिए हमें अपने अधिकार की रक्षा हेतु अपने कर्तव्यों का पूर्ण पालन करना चाहिए । क्या है (RTI) की कमियाँ?पुरानी कार्य-संस्कृति, पुरानी सोंच, प्रशासनिक उदासीनता एवं बाबूशाही शैली में कार्य करनेवाले लोगों में इस एक्ट को लेकर काफी बेचैनी है, और इस तरह के लोग (RTI) को अंदर ही अंदर को सटे रहते हैं । इसके कारण ७० प्रतिशत आवेदकों को ३० दिनों में कोई सूचना नहीं मिली । यदि मिली भी तो ३० प्रतिशत को ही सूचना मिली और वह भी गलत, अपूर्ण या भ्रामक । आरटीआई में ऐसा कोई मैकेनिज्म ही नहीं बनाया गया जिससे यह पता चल सके कि किस आवेदक को सूचना मिली या नहीं मिली और नाही संबंधित विभाग । सेक्शन माँगी गई सूचना के जबाब की प्रतिलिपि ही आरटीआई सेल में देने की नैतिक जिम्मेदारी ही पूरी करते हैं । आरटीआई सेल में कर्मचारियों की भयंकर कमी है । आरटीआई के तहत आवेदकों का ढेर लगता जा रहा है, परन्तु कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने हेतु प्रशासन का रवैया उदासीन है, जो गंभीर एवं सोचनीय है । आरटीआई के सूखी सीट पर आने के लिए कर्मचारी तैयार ही नही होते और जो कर्मचारी इस सेल में आने के लिए उत्सव भी हैं उन्हें विभिन्‍न कारणों से यहाँ लगाया ही नहीं जाता । जन सूचना अधिकारियों के समक्ष काम का अत्यधिक बोझ है । सूचना अधिकारियों को अपने दैनिक कार्य के साथ-साथ आरटीआई का काम भी देखना पड़ता है और इसी दोहरे बोझ की वजह से आरटीआई का कार्य प्रभावित होता है । ज्यादातर विभागों में आरटीआई सेल में कोई कोऑर्डिनेटर ही नहीं है, जिससे यह सुनिश्‍चित हो सके कि आवेदक को ३० दिनों के भीतर और सही सूचना प्राप्त हुई अथवा नहीं । क्या इस ओर प्रशासन/सरकार की नींद कभी टूटेगी या ऐसी ही चलेगा?
सूचना का अधिकार कानून की विशेषता :१. सूचना का अधिकार के तहत जमा किए गए आवेदक का उत्तर ३० दिनों के अंदर देना आवश्यक है अन्यथा प्रतिदिन की देरी के हिसाब से २५० रू० मात्र का जुर्माना देना पड़ सकता है । २. इस कानून के तहत आप सरकारी निर्माण कार्यों का मुआयना भी कर सकते हैं । ३. अब आप सरकारी निर्माण में प्रयोग की गई चीजों का नमूना भी माँग सकते हैं।४.किस अधिकारी ने फाईल पर क्या लिखा है, कि जानकारी भी प्राप्त कर सकते हैं अर्थात्‌ इस अधिकार का प्रयोग करके आप फाईल नोटिंग्स की प्रतिलिपि भी ले सकते हैं ।
शिकायत भी कम नहीं : १. आवेदकों को सूचना का अधिकार के तहत आवेदन जमा करवाने तक के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है ।२. सूचना आयोग में कानून का कड़ाई से पालन नहीं करने से सरकारी अफसर अपनी मनमानी कर रहे हैं । छोटे-मोटे मामलों में तो सूचनाएँ मिल भी जाती है परन्तु नीतिगत मसलों, बड़ी योजनाओं या फिर जहाँ किसी भ्रष्टाचार का अंदेशा हो तो सरकारी अधिकारी चुप्पी साध लेते हैं । ३. सूचना का अधिकार का प्रचार-प्रसार स्वयंसेवी संस्थाओं या फिर कुछ कार्यकर्ताओं द्वारा ही किया जा रहा है । सरकार अपनी ओर से इस कानून के प्रचार की कोई जिम्मेवारी नहीं निभा रही है । सरकार इस अधिकार के प्रचार-प्रसार में कोई रूचि नहीं ले रही है । उदाहरणस्वरूप २००६-०७ के दौरान प्रिंट मीडिया को १०९ करोड़ रूपया और इलेक्ट्रानिक मीडिया को १०० करोड़ रूपया का विज्ञापन किया गया परन्तु उनमें से एक भी विज्ञापन सूचना का अधिकार अधिनियम २००५ के लिए नहीं था । ४. इस अधिनियम के तहत तमाम सरकारी विभागों को जनसूचना अधिकारी तो नियुक्‍त करवा दिए परन्तु सूचना अधिकारियों को आवश्यक सुविधाएँ नहीं दी । कई विभागों में तो आरटीआई के बारे में प्रशिक्षण भी नहीं दी गई है । कहीं-कहीं आरटीआई सेल को कमरा भी उपलब्ध कराया गया है । ५. सूचना आयोग में भी अदालतों की तरह केसों का ढेर लगता जा रहा है । किसी केस की सुनवाई जल्दी नहीं हो पा रही है । वास्तव में सूचना आयोगों में भी पर्याप्त संख्या में न तो आयुक्‍त हैं न आवश्यक सुविधाएँ । ६. कई दागदार व्यक्‍तियों को भी सूचना आयुक्‍त/सूचना अधिकारी बना दिया गया है । यदि उन्हें मौका मिला तो इस कानून को तहस-नहस कर देंगे । ७. कई सूचना आयुक्‍त तो न्याय की सामान्य प्रक्रिया तक नहीं जानते । न्याय करने के लिए दोनों पक्षों की सुनवाई आवश्यक है परन्तु आयुक्‍त तो सिर्फ आवेदक को ही बुलाकर कुछ ही मिनटों में सुनवाई पूरी कर देते हैं । कभी-कभी तो आवेदक के खिलाफ भी फैसला कर डालते हैं ।
कैसे करें आरटीआई आवेदन :-१. सादा कागज पर ही आवेदन करें ।२. नकद, बैंक ड्राफ्ट, बैंकर्स चेक या पोस्टल ऑर्डर से शुल्क जमा करें । जो भी बैक ड्राफ्ट, बैकर्स चेक या पोस्टल बनवाएँ उन पर उस जनसूचना अधिकारी का नाम हो जिससे सूचना माँगी जाय । ३. आवेदन-पत्र संबंधित जन सूचना अधिकारी को स्वयं या डाक द्वारा भेजा जा सकता है । ४. आवेदनकर्ता को सूचना माँगने का कारण बताना जरूरी नहीं है । ५. यदि सूचना माँगने वाला व्यक्‍ति गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहा है तो उसे कोई शुल्क नहीं देना होगा, लेकिन उसे गरीबी रेखा के नीचे रहने का प्रमाणपत्र की छायाप्रति लगानी होगी । ६. कोई भी व्यक्‍ति ग्राम पंचायत से लेकर राष्ट्रपति महोदय तक किसी ही सरकारी कार्यालय से किसी भी अभिलेख, सलाह, प्रेस विज्ञप्ति, आदेश, लॉगबुक, कान्ट्रैक्ट, रिपोर्ट आँकड़े, माजल आदि की सूचना प्राप्त कर सकता है । ७. यदि ३० दिनो के भीतर सूचना नहीं मिलती है तो आपको अप्रील अधिकारी के पास (जो उसी विभाग का वरिष्ठ अधिकारी होगा) प्रथम अपील दाखिल कर सकते हैं । ८. यदि प्रथम अपील करने के ३० दिनों तक भी सूचना नहीं मिले तो संबंधित सूचना आयोग में ९० दिनों के भीतर दूसरी अपील कर सकते हैं ।
कैसे करें शिकायत/ अपील :-१. यदि आवेदनकर्ता को किसी भी आधार पर कोई सूचना देने से मना किया जाता है या ३० दिनों के भीतर सूचना नहीं मिलती है तो प्रथम अपील अधिकारी के पास शिकायर/अपील की जा सकती है ।२. यदि आवेदनकर्ता प्रथम अपील अधिकारी के निर्णय से भी असंतुष्ट हैं तो आवेदनकर्त्ता राज्य सूचना आयोग के समक्ष द्वितीय अपील कर सकता है । ३. यदि आवेदनकर्ता को सूचना अधिकारी का नाम नहीं बताया जाता है या फिर आवेदन लेने से ही मना किया जाता है तो आवेदक राज्य सूचना आयोग के पास शिकायत कर सकता है । ४. यदि आवेदनकर्त्ता को लगता है कि उससे माँगा गया शुल्क अविश्‍वसनीय या मिथ्या है तो भी सूचना आयोग से शिकायत की जा सकती है । ५. यदि आप साक्षर नहीं है या शारीरिक रूप में अक्षम हैं जो जनसूचना अधिकारी की बाध्यता है कि वह आपकी मदद करे । ६. यदि जन सूचना अधिकारी की लापरवाही की वजह से आपको कोई हानि हुई हो अथवा बार-बार सूचना आयोग के पास जाना पड़ा हो तो आप व्यय-भार की भरपाई की माँग करें । केंन्द्रीय सूचना आयोग ने इसी तरह के कुछ मामलों में आवेदकों को हरजाना दिलवाया है ।
नोट : ऐसी कोई भी जानकारी देश की संप्रभुता, अखंडता एवं सुरक्षा को प्रभावित करती हो, विधायिका या संसद के विशेषाधिकार का हनन करें या धारा-८ के अंतर्गत आती हो, ऐसी सूचना नहीं दी जा सकती है ।

१९६२ की लड़ाई के लिए पंड़ित नेहरू जिम्मेदार

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1 जुलाई 1954 को ही (भारत-चीन) सीमा पर बातचीत के दरवाजे बंद कर दिए थे। यह बात ए जी नूरानी की नई किताब में कही गई है। पुस्तक के मुताबिक नेहरू ने न केवल बातचीत के दरवाजे बंद कर दिए थे बल्कि 1960 में भारत दौरे पर आए और विवाद को समाप्त करने को तैयार चाउ एन लाइ को टका सा जवाब दे दिया था। इन दोनों कारकों ने 1962 के भारत-चीन युद्ध की नींव डाल दी।

लीगल मामलों के एक्सपर्ट ए.जी. नूरानी सरहद से जुड़े मसलों के अपने अध्ययन के लिए भी जाने जाते हैं। नूरानी ने इस पुस्तक में 17 पैरा मेमोरेंडम को उद्धृत किया है जिसमें नेहरू ने कहा है,'हमारी अब तक की नीति और चीन से हुआ समझौता दोनों के आधार पर यह सीमा सुनिश्चित मानी जानी चाहिए। ऐसी जो किसी के साथ भी बातचीत के लिए खुली नहीं है। बहस के कुछ बेहद छोटे मसले हो सकते हैं लेकिन वे भी हमारी ओर से नहीं उठाए जाने चाहिए।'


इंडिया-चाइना बाउंडरी प्रॉब्लम 1846-1947: हिस्ट्री एंड डिप्लोमैसी' नाम की इस पुस्तक में बताया गया है कि भारत ने अपनी तरफ से ऑफिशल मैप में बदलाव कर दिया। 1948 और 1950 के नक्शों में पश्चिमी (कश्मीर) और मध्य सेक्टर (उत्तर प्रदेश) के जो हिस्से अपरिभाषित सरहद के रूप में दिखाए गए थे, वे इस बार गायब थे। 1954 के नक्शे में इनकी जगह साफ लाइन दिखाई गई थी।' लेखक ने कहा है कि 1 जुलाई 1954 का यह निर्देश 24 मार्च 1953 के उस फैसले पर आधारित था जिसके मुताबिक सीमा के सवाल पर नई लाइन तय की जानी थी। किताब में कहा गया है,'यह फैसला दुर्भाग्यपूर्ण था। पुराने नक्शे जला दिए गए। एक पूर्व विदेश सचिव ने इस लेखक को बताया था कि कैसे एक जूनियर ऑफिसर होने के नाते खुद उन्हें भी उस मूर्खतापूर्ण कवायद का हिस्सा बनना पड़ा था।'

सौ. नभाटा।