Saturday, February 5, 2011

खाली पेट गणतंत्र

देश का पहला बजट 200 करोड़ रूपये का था. 60 वर्षों में इसका आकार 200 करोड़ से 10 लाख करोड़ रूपये पर पहुँच गया. पर अफसोस यदि कुछ नहीं बदला तो गरीबी और भुखमरी का दर्द. इस गणतंत्र के पर्व पर भी हम गर्व से नहीं कह सकते हैं कि आर्थिक विकास ने लोगों को भूखी रातों से मुक्ति दिला दी है. यहां आज भी हर रोज 42 करोड़ लोग पेट भरे बिना नींद के आगोश में जाते हैं.


सवाल यह है कि बजट जब 5000 गुना बढ़ता है, तब अनाज उत्पादन चार गुना ही बढ़ पाता है. ग्रामीण भारत में 23 करोड़ लोग अल्पपोषित हैं, 50 फीसदी बच्चों की मृत्यु का कारण कुपोषण है. 15 से 49 वर्ष की आयु वर्ग में हर 3 में से एक व्यक्ति कमजोर है. सरकार लगभग 22.8 करोड़ टन अनाज उत्पादन के लक्ष्य को हासिल करने की जद्दोजहद में है परन्तु वर्ष 2015 में इसे अपनी जरूरत पूरा करने के लिए 25 से 26 करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी, यह पूरा हो पाना संदेहास्पद है. दुनिया की 27 प्रतिशत कुपोषित जनसंख्या केवल भारत में रहती है.

5 वर्ष से कम उम्र के 70 फीसदी बच्चों में खून की कमी है. 19 में से 11 राज्यों में 75 प्रतिशत से ज्यादा बच्चे एनीमिया के शिकार हैं. मतलब यह है कि भारत का विकास आंकड़ों का मकड़जाल है. यह लोगों की जिन्दगी में बदलाव का सूचक नहीं है.

1972-73 में प्रति व्यक्ति प्रतिमाह 15.3 किलोग्राम अनाज को उपभोग होता था, अब वह 12.22 किलोग्राम प्रतिमाह आ गया है. 2005-06 में एक सदस्य औसतन उपभोग 11.920 किलोग्राम था और वहीं 2006-07 में औसत भोजन का उपभोग घटकर मात्र 11.685 (1.97प्रतिशत कम) किलोग्राम प्रति व्यक्ति रह गया.

एक तरफ तो लोग भूखे सोने पर मजबूर हैं और दूसरी तरफ लाखों मीट्रिक टन अनाज खुले में पड़ा है. भारत में 415 लाख टन अनाज सुरक्षित रखे जाने की क्षमता है. 190 लाख टन अनाज केवल पन्नियों के नीचे असुरक्षित परिस्थितियों में पड़ा है. इस अनाज के त्वरित वितरण से एक बड़े हिस्से को राहत पहुंचाई जा सकती है. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के 35 किलो अनाज वितरित करने के निर्देश का भी पालन नहीं किया जा रहा है और 20 से 25 किलो अनाज ही बांटा जा रहा है। खुले में रखे इस अनाज का उपयोग इस गैप को खत्म करने में किया जा सकता है. 600 लाख टन अनाज के भंडारण के बावजूद इस राजनैतिक-प्रशासनिक इच्छाशक्ति का अभाव है कि इसे गरीब और सबसे वंचित वर्ग तक पहुंचाया जा सके.

आजादी के बाद से ही यह मान लिया गया कि विकास तो औद्योगिकरण से ही होगा. आर्थिक नीतियां ही ऐसी बनाई गईं, जिनमें खेती को ‘‘अकुशल श्रम’’ माना गया और खेती के श्रम के मूल्य को कम आंका गया. सरकारों द्वारा शहरी क्षेत्र, उद्योगों और नौकरशाहों को तरह-तरह की सब्सिडी भी दी गई, जिससे वे तो तेजी से सम्पन्न हुए और किसान, ग्रामीण मजदूर और गाँव गरीब होते गए.

खाद्यान्न उत्पादन में उपयोग की जा रही जमीन और पानी को छीनकर उद्योगों को देने में खाद्यान्न सुरक्षा कैसे सुनिश्चित होगी ? लाखों आदिवासियों को पालने वाले जंगलों को खदानों और फैक्ट्रियों के लिए नष्ट किया जा रहा है. इस पर रोक लगनी चाहिये.

खाद्य असुरक्षा का प्रमुख कारण है कृषि क्षेत्र के लगातार शोषण से उत्पन्न उसमें मौजूदा संकट. हालात यह हैं कि आज देश की 66 प्रतिशत आबादी सीधे कृषि पर निर्भर है, पर इस आबादी का देश की कुल कमाई में हिस्सा केवल 17 प्रतिशत है. दूसरी तरफ निजी कंपनियों का एक प्रतिशत से भी कम होने के बावजूद वह देश की 33 प्रतिशत कमाई पर अपना दावा करता है. असली ‘‘खाद्य सुरक्षा’’ तभी मिल सकती है जब न केवल शोषण और विस्थापन की नीतियाँ बदलें, बल्कि भारत की राजनैतिक अर्थव्यवस्था ही बदली जाए. जब तक देश से कुपोषण समाप्त न हो जाए तब तक खाद्यान्न के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया जाये.

अमीर देशों में पशु और पोल्ट्री में गरीब देशों से आयातित अनाज खिलाया जा रहा है जबकि हमारे देश के गरीब भूखे रह रहे हैं. खरीद सभी मंडियों से हो ताकि सरकारी खरीद का फायदा सभी इलाकों को मिले न कि सिर्फ पंजाब, हरियाणा, आंध प्रदेश और उत्तरप्रदेश के कुछ इलाकों से, जैसा कि फिलहाल होता है.

कई ऐसे इलाके हैं जहां खाद्यान्न की किल्लत है. इसलिए यह जरूरी है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से कमी वाले इलाकों में खाद्यान्न पहुंचाना केन्द सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए, जो जन वितरण प्रणाली का बुनियादी मकसद रहा है. हर ब्लॉक में अन्न भण्डारण के लिए भंडार होने चाहिए, वर्तमान में उचित भण्डारण की कमी के कारण हजारों टन अनाज सड़ रहा है. सरकार न तो इस अनाज के सुरक्षित भंडारण की व्यवस्था कर रही है और न ही इसे भूखे लोगों में वितरित कर रही है. स्थानीय खरीदी, भण्डारण और वितरण के जरिये खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये गांव स्तर पर अनाज बैंक स्थापित किये जायें.


विस्तारित पीडीएस के साथ नई खरीद नीति बनना जरुरी है. न्यूनतम समर्थन मूल्य पर मोटे पौष्टिक अनाज, दालें और तिलहन की खरीद इन फसलों को सहारा देंगी जो फिलहाल कम और अनिश्चित दाम और कम निवेश के चलते उपेक्षित है. मोटे अनाज और दालों का समर्थन मूल्य अभी बहुत कम है. दालों की कीमतों में हालिया चढ़ाव के दौरान भी किसान ने दालें 25-35 रूपये प्रति किलोग्राम के भाव पर बेची. मूंग का न्यूनतम समर्थन मूल्य 27.6 रूपये प्रतिकिलो, तुअर का 23 रूपये किलो था जबकि खुदरा भाव 65 से 120 रूपये प्रति किलो तक रहे.

60 गणतंत्र दिवसों का उत्सव मना चुके इस देश में भुखमरी और खाद्य सुरक्षा के सवाल भौतिक (यानी उत्पादन) के सवाल न होकर पराभौतिक (यानी राजनैतिक और आर्थिक नीतियां) हैं. आज की स्थिति को चिंतनीय माना जाना चाहिये जबकि 77 प्रतिशत लोग जीवन जीने के लिये प्रतिदिन महज 20 रूपये खर्च कर पाने की स्थिति में है और प्याज 60 रूपये, टमाटर40 रूपये, दालें 70 से 90 रूपये किलो के भाव से बिक रही हैं.

मुद्रा की कीमत जीवन की बुनियादी जरूरतों के सापेक्ष लगातार कम हो रही हो, तब यदि सरकार (जिनमें प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, कृषि मंत्री और योजना आयोग शामिल है) सार्वजनिक रूप से यह घोषणा करती हो कि मंहगाई के संकट को खत्म करना उसके बूते की बात नहीं है, तब तो हमें कम से कम यह सवाल पूछना ही चाहिये कि आखिर इस गणतंत्र को चला कौन रहा है? बार-बार यह साबित हुआ है कि कृषि मंत्रालय ने पिछले 5 सालों में बाजार की बड़ी ताकतों को लाभ पहुंचाने के लिये आपूर्ति को कम किया है, दाम चरम स्तर तक बढ़ने दिये हैं, काला बाजारी को नजर अंदाज किया है और इससे भी आगे बढ़कर सार्वजनिक रूप से यह कह कर उन्हें प्रोत्साहन दिया है कि बढ़ती कीमतों के दौर में भी सरकार चादर तान कर और मुंह ढंककर गहरी नींद में होने का नाटक करती रहेगी.

इन परिस्थितियों में सरकार जिन तर्कों को आधार बनाकर लोकव्यापी राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को नकार रही है, उनमें सबसे प्रमुख है कि सबको देने लायक अनाज देश में है ही नहीं ! पर यह तर्क एक झूठ है. यदि सरकार हर परिवार (23 करोड़ परिवार) को 50 किलो अनाज देना चाहे तो उसे केवल 138 लाख तक अनाज की जरूरत होगी जबकि देश के किसानों ने वर्ष 2008-09 में 219 लाख टन अनाज उगाया था. हम मानते हैं कि सभी 23 करोड़ परिवार सस्ता अनाज नहीं लेंगे और यदि 80 फीसदी परिवार ऐसा अनाज लेते हैं तो सरकार की जरूरत केवल 110 लाख टन की रहेगी. यानी देश में अनाज है. इसी तरह यदि इतने ही परिवारों को 5.25 किलो दालें दीं जाये तो केवल 1.15 करोड़ मीट्रिक टन दालों की जरूरत होगी जबकि उत्पादन 1.47 करोड़ मीट्रिक टन से ज्यादा है. जब एक परिवार को हर माह 2.8 किलो तेल देना होगा तो 61.8 लाख टन खाद्य तेल की जरूरत होगी और सभी स्रोतों को मिलाकर देख में वर्ष 2008-09 में 183 लाख टन खाद्य तेल की उपलब्धता थी.

मामला साफ है कि देश में खाद्यान्न पर्याप्त है. दूसरा बड़ा तर्क है कि लोकव्यापी खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने के लिये सरकार को 90 हजार करोड़ रूपये खर्च करने पड़ेंगे और इतना धन सरकार के पास नहीं है. सच्चाई यह है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद में से 18 प्रतिशत ही टैक्स के रूप में सरकार के पास आता है जबकि अमरीका में 28 प्रतिशत और स्केन्डेनेवियन देशों में यह अनुपात 45 से 50 प्रतिशत है.

गरीबी की रेखा बहिष्कार की प्रक्रिया को बुनती है जिसमें दलित, आदिवासी, एकल महिलाएं, वृद्ध बच्चे, विकलांग और दूसरे वंचित वर्ग खाद्यान्न योजनाओं से वंचित हो जाते हैं. इन्हीं परिस्थितियों में जब जरूरत के मान से हकों का निर्धारण नहीं होता है तब भ्रष्टाचार पनपता है और गैर-जवाबदेहिता की स्थिति में लोगों तक उनके अधिकार नहीं पहुंच पाते हैं. गरीबी की रेखा के छोटे होते जाने के कारण ज्यादातर लोग खुले बाजार के शोषण के शिकार होते हैं. भुखमरी से मुक्ति, जीवन के अधिकार, शोषण को चुनौती देते हुए समानता आधारित जवाबदेय व्यवस्थापक की स्थापना खेती-प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून का सर्वव्यापी होना ही एकमात्र विकल्प है.

एक ओर तो सरकार सेवा और उद्योगों से टैक्स ही कम लेती है और दूसरी ओर इस टैक्स पर भी भारी छूट दी जाती है. वर्ष 2009-10 में केन्द्र सरकार ने टैक्स में 5,02,229 करोड़ रूपये छूट दी जो कुल टैक्स संग्रह का 79.54 प्रतिशत है. इसी साल सोना, हीरा और आभूषणों में कस्टम ड्यूटी पर 39796 करोड़ रूपये की छूट दी गई. हमें मध्यमवर्गीय समाज को यह बताना होगा कि उनकी विलासिता और सुविधा के लिये सरकार तीन चौथाई जनसंख्या को भूखा रख रही है; क्या उन्हें यह स्थिति मंजूर है! किसान और आदिवासी इस गणतंत्र के मूल निवासी हैं, उनकी उपेक्षा करके बनाई गई कोई भी नीति समतामूलक और न्याय आधारित समाज की दिशा में ही बढ़ेगी; यह हमारे नीति निर्माताओं को स्वीकार कर लेना होगा.


(सचिन कुमार जैन)

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