Saturday, February 5, 2011

Hindi Movie - सूचना का अधिकार - Right to Information

SANDHAN: आत्महत्या का पाप

SANDHAN: आत्महत्या का पाप

आत्महत्या का पाप

तंत्र-मंत्र, टीका-चंदन, बाबा-बैरागी के बाद अब किसानी आत्महत्या के पाप-पुण्य की व्याख्या की है भाजपा सरकार के प्रवचनकारों ने. मध्यप्रदेश में लगातार बढ़ती किसानी आत्महत्या को टीकाधारी प्रदेश के कृषिमंत्री ने किसानों का पिछले जन्म का पाप बताया है. उन्होंने कहा कि लगातार किसानों ने खाद और केमिकलयुक्त दवाओं को डालकर धरती मां को बीमार करने का जो पाप किया है, उसी का परिणाम है कि धरती मां फसल खराब कर रही है और उनका पुत्र यानी कि किसान मरने को मजबूर है.

ऐसे उपदेशों की एक व्याख्या तो ये है कि किसान अपने कर्मों यानी पाप से मर रहा है. यानी उसकी आत्महत्या में किसी की जिम्मेदारी नहीं. न राज्य की, न केन्द्र की, न खाद-बीज बनाने वाली कंपनियों की, न नीति-निर्माताओं की और न बदलती प्रकृति की. दूसरी व्याख्या उन संघियों, एन.जी.ओ., सरकारी कारिंदों या तथाकथित् जैविक और प्राकृतिक खेती के पूजकों की है, जो कहते हैं कि हमने जल-जंगल-जमीन से जो छेड़छाड़ की, उसी का परिणाम है ये त्रासदी.

मतलब साफ है कि सब कुछ उस पापी किसान का ही किया धरा है. जबकि किसान और उसका खेत, बीज, खाद, सिंचाई, पैदावार उसके दाम और बाजार हमेशा सत्ता से नियंत्रित होते रहे हैं. फिर चाहे वो राजशाही हो, अंग्रेजी दौर की जमींदारी-सामंतशाही हो या फिर आज का तथाकथित लोकतंत्र. जिस हरित क्रांति या आधुनिक खेती को आज हमारे योजनाकार, राजनेता, सरकार, वैज्ञानिक या सामाजिक कार्यकर्त्ता लगातार गरिया रहे हैं, उसे किसान के खेतों तक पहुंचाने का पुण्यकर्म भी इन्होंने ही किया था. और आज किसान को पापी बताकर जैविक, प्राकृतिक या ऋषि की नारेबाजी भी यही खेत से दूर खड़े लोग कर रहे हैं.

असल में पाप-पुण्य की समझ ही खेती को धार्मिक कर्मकांड बना देने से निकली है. तभी तो प्रदेश के कृषि विभाग की वेबसाईट भरपूर अवैज्ञानिकता फैलाते हुए बताती है कि इस मुहूर्त या नक्षत्र में फलां वस्तु बोने से इतना फायदा होगा. इन्हें कौन बताये कि इल्ली का प्रकोप होने पर खेत में हवन करने पर इल्ली खत्म नहीं बल्कि भाग जाती है. प्रदेश का सिंचाई विभाग वॉटरशेड को शिवगंगा कह कर सिंचाई करने की बात करता है. प्रदेश का वन महकमा और उसके ज्ञानी वैज्ञानिक कहते हैं कि सीताफल और आंवले की पैदावार बढ़ाने के लिये पेड़ों को राग भैरवी सुनाना चाहिये और वो भी ऐरे-गैरे की नहीं प्रसिद्ध सितारवादक पं.रविशंकर के सितार से निकली हुई.

कृषिमंत्री को खुश करने के लिये प्रदेश के कृषि विश्वविधालय के वैज्ञानिक अब एक ‘‘अमृत पानी’’ तैयार कर रहे हैं, जिससे खेत की उत्पादन क्षमता बढ़ाई जाये. आश्चर्य है कि इसका पहला प्रयोग उसी सीहोर जिले के गांव में किया गया, जहां सबसे पहले किसान ने आत्महत्या की.

एक और अंधा प्रयोग प्रदेश का साईंस एंड टेक्नालॉजी विभाग करोड़ों रुपये खर्च करके प्रायः हर साल कई जगह कर रहा है. इसमें सोमयज्ञ किया जाता है और उससे सूखे खेतों में पानी गिराने का दावा किया जाता है. अभी तक पानी की एक बूंद भी नहीं गिरी पर करोड़ों रुपये का चूना जरुर लगा. जबकि खेती और किसान की पद्धति अपने-आप में एक विज्ञान है. जो हमें भडूरी की कहावतों से लेकर कृषि विज्ञान की पुस्तकों में अपने तथ्य और तर्क के साथ हमेशा दिखाई देती है. असल में ऐसी ही अवैज्ञानिकता से निकलता है पाप-पुण्य का फंडा, जो कि मरे हुए किसान के सिर पर फोड़ा जाता है.

आश्चर्य है कि इस पापी किसान के मरने की खबरें भी उन इलाकों या जिलों से ज्यादा आ रही हैं, जो या तो मुख्यमंत्री या कृषिमंत्री के गृह और राजनैतिक क्षेत्र हैं. जहां से ये लोग इसी पापी किसान के दम पर चुनाव जीतते आ रहे हैं. पिछले 15 दिनों में प्रदेश में 18 किसानों ने आत्महत्या की है. और इस सबका तात्कालिक कारण अत्यधिक ठंड के कारण पड़ा पाला या तुसार है. इस पाला ने कई सालों बाद एक अच्छी फसल को पूरी तरह खत्म कर दिया. इस फसल से उस किसान ने अपने सिर पर चढ़े कर्जे को पटाने की आशा पाली थी. इस फसल के लिये उसने लागत भी भरपूर लगायी थी लेकिन पूरी फसल चौपट हो गई.

कितना दुखद है कि जिस कर्जे को माफ करने की बात केन्द्र और राज्य की सरकारें पिछले कुछ सालों से लगातार करती आई हैं, वही कर्जा आज भी किसानों के गले का फंदा बना हुआ है. जबकि कई करोड़ रुपये इस किसान के कर्ज के नाम पर घोषित हो चुके हैं. वहीं पिछले दो सालों में केन्द्र और राज्य की सरकारें इसी झूठे आश्वासन और नारों के दम पर फिर से चुन कर आ गईं. अभी तक मध्यप्रदेश किसान आत्महत्या के मामले में तीसरे पायदान पर था पर पिछले पन्द्रह दिन की रफ्तार बताती है कि प्रदेश शीघ्र ही पहले नहीं तो दूसरे नंबर पर आने को तैयार है. वह भी तब जब इस प्रदेश का मुख्यमंत्री हर सांस में अपने-आप को किसान पुत्र बताने से नही चूकता है. जब इस प्रदेश का कृषि मंत्री अचानक स्वंयभू जैविक बाबा बन जाता है और जैविक नीति बनाने में लग जाता है. जब प्रदेश का कृषि विभाग अचानक नाम बदलकर खेती का नहीं किसान के कल्याण का विभाग बन बैठता है. जब विभाग के अदना से लेकर अदना तक के कर्मचारी कर्मकांडी तरीके से किसानों की बात करने लगते हैं. जब संघ से जुड़े संगठन का किसान संगठन नूरा-कुश्ती के रुप में अपनी 185 मांगों के लिये दो दिन तक राजधानी को जाम कर देता है. जब जैविक खेती और भोजन के अधिकार के नाम पर किसानों को बहलाने के लिये ढेरों एनजीओ धो-पोंछकर अपनी दूकानें चमकाने लगते हैं और बाजार, सरकार, वित्तीय संस्थानों तथा तकनीक को गरियाते हुए अखबारों में छाने लगते हैं.


ये मौतें तो सिर्फ बालिग या व्यस्क किसानों की हैं पर अगर हम किसान के सबसे छोटे प्रतिनिधि बच्चा या शिशु की कुपोषण से हुई मौतों का आंकड़ा देखें तो दिल दहल जाता है. कुपोषण की इन मौतों में भी प्रदेश पिछले कई सालों से सबसे ऊपर बैठा हुआ है. जबकि सरकार, राजनीतिक पार्टी और सिविल सोसाइटी इस मुद्दे पर भी अपने आपको सजग और सतर्क रहने का दावा करती है. पर कुपोषण से मौत का आंकड़ा हर क्षण बढ़ता जाता है.

फिलहाल 500 करोड़ रुपये राहत की घोषणा, पटवारी हल्का नहीं बल्कि अब प्रत्येक खेत का स्वतंत्र मुआवजा तय होने की बात. लगान माफी, ऋण वसूली पर तत्काल रोक, पचास प्रतिशत हानि को 100 प्रतिशत माना जाये. फसल बीमा के त्रुटिपूर्ण प्रावधान को संशोधित किया जाना, दलित-आदिवासी किसानों को 200 करोड़ रुपये के कर्ज माफ करने तथा अपंजीकृत साहूकारों के ऋण से छुटकारा दिलाने तथा गिरवी रखे खेत को नीलाम नहीं करने का कानून बनाने की बात किसान पुत्र मुख्यमंत्री ने फिर से बड़े जोर-शोर से उठायी है.

अब देखना है कि आत्महत्या करते उस दरिद्र और गरीब किसान या उसके परिवार तक इस घोषणाओं का कितना अंश पहुंच पाता है. क्योंकि इन भारी लाभों की घोषणा से जिनके चेहरे खिल उठे हैं, उनमें सरकारी कारिंदे, अफसर, सहकारी नेता, सत्ता पार्टी का राजनैतिक कार्यकर्त्ता और इन सबको साधने वाला गांव या क्षेत्र का बिचौलिया. जिनसे गुजरकर इस राशि का अंश उस पीड़ित तक पहुंचेगा. यानी मरे हुए के परिवार तक राशि पहुंचना भी हमारी व्यवस्था में इतना सरल नहीं.

ताजा उदाहरण केन्द्र सरकार की ऋण माफी योजना का है, जिसमें 60 हजार से अधिक अपात्रों का ही कर्ज माफ कर दिया गया. विधानसभा का हंगामा, विभिन्न जांच रपट, विरोधी दलों की अपील और मीडिया के खुलासे के बाद पता चला कि मध्यप्रदेश में 200 करोड़ रुपये ऐसे लोगों में बांट दिये गये जिनका खेती से या नुकसान से कोई लेना-देना नहीं है.

30 सितंबर 2010 को सामने आयी रपट बताती है कि 2 लाख 14 हजार 129 किसानों के, 245 करोड़ 72 लाख 14 हजार 353 रुपये के कर्ज माफी आवेदन पास हुए थे. जिसमें 60 हजार 188 दावे बोगस पाये गये. इनमें कई सारे तो कार, जीप, मोटरसाईकिल आदि के ऋण माफ कर दिये गये. और असल पात्र को ऐसी योजना का पता ही नहीं. आज प्रदेश के जिन गांवों में आत्महत्या हुई है उनमें से कई ऐसी किसी योजना के बारे में नहीं जानते.

किसानों के देश भारत में हम हमेशा से दो कहावतें सुनते आये हैं, एक तो हमारे यहां खेती एक जुआ है और दूसरा किसान कर्ज में पैदा होता है, कर्ज में जीता है और कर्ज में ही दम तोड़ देता है. यानी कर्ज लेना और या खेती पर दांव लगाना कोई अचानक या किसी साजिश से नहीं हुआ है. हां, ये जरुर है कि आज उसका रुप और मात्रा बदल गयी. किसान भी आज की पूंजीवादी दुनिया का ब्रम्ह वाक्य ‘‘हिम्मत करो, आगे बढ़ो’’ से प्रभावित होकर ज्यादा जोखिम उठाने लगा है. फिर कर्ज लेने में ज्यादा कोई बुराई भी नहीं, सिर्फ जरुरत है अपनी चादर को पहचान कर उसे मैनेज करने की.


ये जरुर है कि ‘‘क्रेडिट कार्ड’’ अन्य सरकारी योजनायें, अनुदान के हिस्से का लालच, बढ़ती लागत और बाजार का आकर्षण के नित नये लालच उसे भी बाकी समाज की तरह अपनी ओर रिझा रहे हैं. और फिर वैश्विक होती खेती, निर्यात योग्य फसल का दवाब, खेती का कंपनीकरण, कम या खत्म होता अनुदान, कम होता सरकारी निवेश, हवाला बाजार, बाहरी माल की डंपिंग, ठेका खेती, विश्व व्यापार संगठन की कठिन शर्तें और सत्ता का खेती को तीसरे पाले में (विकास दर में तीसरा हिस्सा) रखना भी किसान की रीढ़ तोड़ने के लिये काफी है.

योजना आयोग की 2009 की रपट कहती है कि किसानों का एक बड़ा हिस्सा लगभग 40 प्रतिशत या तो खेती करना छोड़ चुका है या छोड़ना चाहता है. वहीं राष्ट्रीय रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं कि 1997 से 2010 तक यानी इन तीन सालों में दो लाख, सोलह हजार, पांच सौ किसानों ने न सिर्फ खेती को बल्कि दुनिया को ही अलविदा कह दिया, यानी कि आत्महत्या की. वहीं लाखों एकड़ उपजाऊ जमीन रायल इस्टेट, कंपनियों, बायोफ्यूल, सेज, सड़क और बांधों की बलि चढ़ गयी. इनमें भी 60-65 प्रतिशत हिस्सा उस छोटे सीमांत किसान या खेतीहर मजदूर का है, जो हमारी बढ़ती हुई व्यवस्था या ऊंची उठती विकास दर के बही-खाते से नदारद है. न सिर्फ सत्ता के बही-खाते से बल्कि विभिन्न राजनीतिक धाराओं, सिविल सोसाईटियों, मीडिया या योजनाकारों के बोलचाल, लिखा-पढ़ी में भी इसका जिक्र नहीं है. इसका थोड़ा बहुत जिक्र सिर्फ भोजन सुरक्षा बिल या भोजन के अधिकार जैसे उसके सामने फेंके टुकड़ों में है, जिससे ये आधा पेट रहकर न मर सकें, न संगठित होकर विद्रोह पर उतर सकें और मध्यम, उच्च मध्यम वर्ग की दूकानें इसकी आंच व आग से बची रहें.

शायद यही कारण है कि जिसके पास खोने को कुछ भी नहीं, उससे डर कर आज एक बड़ी लॉबी या जमात भोजन का अधिकार, रोजगार का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, जंगल का अधिकार और तथाकथित सूचना के अधिकार जैसे झुनझुने उसके बहलाने के लिये पकड़ा रहे हैं. यानी खदबदाती हुई आग पर पानी डालने का काम कर रही है.

जनगीतकार बल्लीसिंह चीमा के गीत “ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के” की पंक्तियां ‘‘तेलंगाना जी उठेगा, देश के हर गांव में’’ गाते हुए हम बड़े हुए हैं और हमने जाना है कि तेलंगाना के किसानों का सामंती व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष मारने वाला या मरने वाला नहीं. शायद इसलिये कवि ने क्रांति के इस बीज को गांव-गांव तक पहुंचाने की कल्पना और जरुरत समझी थी.

तेलंगाना ही नहीं तिभागा, पुलप्पावायलर, श्रीकाकूलम, नक्सलबाड़ी, निपानी, बोधगया, चंपारण का इतिहास हमें किसानों के संगठन, संघर्ष और जुझारुपन की ही बार-बार याद दिलाता है. आखिर क्या कारण है कि हमारा आज का किसान एक बहुत ही व्यक्तिवादी, निराशात्मक दौर से गुजरकर आत्महत्या की ओर प्रेरित हो रहा है. ये सोचने-समझने और विचार करने का प्रश्न है.


(योगेश दीवान)

सूचना को ना

तो क्या अब सूचना का अधिकार भी देश के दूसरे सैकड़ों नियम-कायदे और कानून की तरह नौकरशाहों की साजिशों का शिकार बन कर रह जायेगा ? कम से कम झारखंड में जिस तरीके से सरकारी भर्राशाही में इस कानून का दम निकालने की कोशिश हो रही है, उससे तो ऐसा ही लगता है. लाट साहबों के नखरे रखने वाले सरकारी अधिकारी-कर्मचारी और सूचना अधिकारी व सूचना आयुक्त मिल-जुल कर इस कानून के खिलाफ ऐसे-ऐसे दाव-पेंच अपना रहे हैं, जिसमें इस कानून के सहारे सूचना निकलवाने का सपना देखने वाले आम आदमी का दम निकल जाये.


झारखंड में सरकारी भर्राशाही का आलम ये है कि राज्य सरकार के अधिकांश विभाग अव्वल तो सूचना के अधिकार के तहत आवेदन लेने में ही आनाकानी करते हैं. अगर किसी तरह आवेदन ले भी लिया तो सूचना देना-न देना उनकी ‘कृपा’ पर निर्भर होता है. सूचना न मिले तो आप अपील कर सकते हैं, राज्य आयुक्त के पास जा सकते हैं. लेकिन इन सबों के बाद भी सूचना मिल जाये, ये जरुरी नहीं है. हां, सूचना आयुक्त से अपील के बाद आवेदन वापस लेने की धमकियां आपको ज़रुर मिल सकती हैं.

सरकार ने प्रसाद बांटने की तरह राज्य में सूचना आयुक्त बनाये और सबको पीली बत्तियां बांट दी. मोटी तनख्वाह पाने वाले इन सूचना आयुक्तों के जिम्मे कितने काम हैं, यह देखने-जानने की फुरसत किसी के पास नहीं है. जबकि यहां अन्य राज्यों की तरह एक-दो सूचना आयुक्तों से भी काम हो सकता था.

इस पद की शोभा बढ़ाने वालों की मंशा जनता की सेवा में कम मलाई मारने में ज्यादा है. सरकार में बैठे नेताओं की परिक्रमा कर कई लोग लिखा-पढ़ी का काम छोडकर यह पद पाने में सफल हो गये. सरकार में बैठे लोगों के लिए अपने लोगों को उपकृत करने के लिए अच्छा मौका मिल गया. धीरे -धीरे यह पद मलाईदार बनता गया. इन आयुक्तों की ठसक किसी मंत्री से कम नहीं रह गयी. फिलहाल सूचना आयुक्तों की कार्यशैली पर ही कई तरह के प्रश्न खड़े होने लगे हैं. कुछ सूचना आयुक्त लगभग थानेदार की भूमिका निभा रहे हैं और उल्टा सूचना के बदले लोगों को ब्लैकमेल कर रहे हैं.

दूरदराज से लोग शिकायत लेकर सूचना आयुक्तों के पास आते हैं. लेकिन इन्हें न्याय मिलना तो दूर कार्यालयों के इतने चक्कर लगवाये जाते हैं कि ये थक हार कर वापस लौटने को विवश हो जाते हैं.

पिछले दिनों रांची के केन्द्रीय पुस्तकालय में यूथ फॉर द चेंज के तत्वावधान में आयोजित जन सुनवाई कार्यक्रम के दौरान राज्य में सूचना के अधिकार के हाल को लेकर हैरतअंगेज तथ्यों का खुलासा हुआ.

दुमका के प्रो. बह्मदयाल मंडल ने सूचना आयुक्त पर आरोप लगाया कि सूचना मिलना तो दूर, उनके मामले में एफआईआर दर्ज कराने की धमकी दे डाली. सूचना के अधिकार के तहत दुमका के जिला शिक्षा पदाधिकारी सह लोक सूचना अधिकारी शिवचरण मंडल से शिक्षा विभाग से संबधित सूचनाएं मांगी थी. सूचना तो नहीं मिली, बदले में प्रताड़ना मिली. उनकी बहू रंभा कुमारी को सूरजमंडल उच्च विद्यालय सरैयाहाट दुमका से निकाल दिया गया तथा अभद्र व्यवहार किया गया.

रांची धुर्वा के नागेश्वर शर्मा ने कहा कि उन्होंने राज्य पुलिस की बहाली की मेगा सूची सूचना के अधिकार के तहत मांगी थी लेकिन तीन साल के बाद भी उन्हें सूचना नहीं दी गयी और मामला हाईकोर्ट में चल रहा है.

झारखंड के साहबगंज के राधेश्याम कहना था कि उनके घर के बगल में विडियो सिनेमा हॉल खोल दिया गया. उन्होंने सूचना मांगी कि आवासीय परिसर में ऐसे सिनेमा हॉल खोलने की अनुमति किस प्रक्रिया के तहत दी गयी. उन्हें सूचना नहीं दी गयी.

राज्य के पूर्व मंत्री रामचंद्र केसरी का कहना था कि गढ़वा के उपायुक्त ने एक निर्देश जारी किया है कि अब प्रखंड तथा अनुमंडलों की जगह केवल जिला में ही लोक सूचना पदाधिकारी होंगे. यह मनमानी नहीं तो और क्या है?

झारखंड में श्री कृष्ण लोक प्रशासन केन्द्र ने आम लोगों को सूचना उपलब्ध कराने की गरज से पिछले वर्ष अधिकारियों का प्रशिक्षण चलाया था ताकि वे इस कानून को बेहतर ढंग से समझ सकें. वहीं इस संस्थान ने अपने दरवाजे आम लोगों के लिए खोल दिया तथा आम लोगों को प्रशिक्षण दिया. केन्द्र के तात्कालीन महानिदेशक अशोक कुमार सिंह ने इस दिशा में सकारात्मक पहल की थी . लेकिन इन प्रशिक्षणों के उलट लोगों को सरकारी महकमे में अब सवाल पूछने की सजा मिल रही है.


हालांकि कई सूचना अघिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि अब वे अभद्र व्यवहार करनेवाले सूचना आयुक्तों के यहां से अपने मामले का तबादला कराएंगे. साथ ही शपथपत्र दाखिल कर राज्यपाल को वस्तु स्थिति से वाकिफ कराएंगे. इसके अलावा प्रीवेंशन आफ करप्शन एक्ट 31-डी के तहत मुकदमा दायर करेंगे.

मैग्सेसे अवार्ड विजेता अरविंद केजरीवाल कहते हैं “सूचना आयुक्तों के चयन की प्रक्रिया में बदलाव की जरूरत है. सूचना आयुक्तों की एक लंबी टीम की नहीं बल्कि एक सूचना आयुक्त ही काफी है.”

आंकड़े बताते हैं कि इस कानून को लागू हुए पांच वर्ष बीत गए लेकिन स्थिति है कि केवल 15 फीसदी मामले में ही लोक सूचना अधिकारी तय समय सीमा में जवाब दे पाते हैं. 55 फीसदी लोगों को सूचना मिलने में तीस दिनों से ज्यादा समय लगा तो 9 फीसदी लोगों को 60 दिनों से ज्यादा इंतजार करना पड़ा. एक फीसदी लोगों को एक वर्ष से ज्यादा समय तक का इंतजार करना पड़ा. 19 फीसदी लोगों को सूचना ही नहीं मिली. पारदर्शिता और सुशासन के नाम पर राज कर रही सरकारों के कथनी करनी की पोल स्वतः खुल जाती है.

एक अध्ययन के मुताबिक सूचना आयोगों का दरवाजा खटखटाने वाले 100 में से 27 लोगों को ही सही जानकारी मिल पाती है. अपीलकर्ता के पक्ष में 39 फीसदी ही आदेश लागू हो पाते है. प्रदेश स्तर पर तैनात सूचना आयुक्तों की दोषपूर्ण कार्यप्रणाली के कारण सूचना के अधिकार का लाभ आम लोगों को नहीं मिल पा रहा है.

सूचना के अधिकार में वे ही लोग बाधा बन रहे हैं जिन लोगो पर इसके कार्यान्वयन की जिम्मेदारी है. सूचना आयुक्तों के पास अधिकार के तौर पर ऐसे दांत हैं, जिसका इस्तेमाल वे दोषियो को दंडित कर सकते है.

अरविंद केजरीवाल कहते हैं- “धारा 18 के तहत सूचना आयुक्त अधिकारियों से न केवल जानकारी ले सकते है बल्कि पुलिस का भी इस्तेमाल कर सकते हैं. सूचना आयुक्तों की नियुक्ति राजनीतिक हस्तक्षेप से बल्कि योग्यता के आधार पर की जानी चाहिए. आम जनता तो इस कानून की मदद से भ्रष्टाचार पर कारगर तरीके से नकेल कसने का प्रयास कर रही है तो दूसरी तरफ सरकार में बैठे भ्रष्ट अधिकारी और नेता लोगों को सूचना और उनके अधिकार से वंचित ही करना चाहते हैं.”

सूचना के अधिकार से वंचित करने वाले अधिकारी और सूचना आयुक्तों के मामले को सुनते हुये ‘बाड़ द्वारा ही खेत को खाने’ का पुराना किस्सा याद आता है न !


(कुमार कृष्णन)

खाली पेट गणतंत्र

देश का पहला बजट 200 करोड़ रूपये का था. 60 वर्षों में इसका आकार 200 करोड़ से 10 लाख करोड़ रूपये पर पहुँच गया. पर अफसोस यदि कुछ नहीं बदला तो गरीबी और भुखमरी का दर्द. इस गणतंत्र के पर्व पर भी हम गर्व से नहीं कह सकते हैं कि आर्थिक विकास ने लोगों को भूखी रातों से मुक्ति दिला दी है. यहां आज भी हर रोज 42 करोड़ लोग पेट भरे बिना नींद के आगोश में जाते हैं.


सवाल यह है कि बजट जब 5000 गुना बढ़ता है, तब अनाज उत्पादन चार गुना ही बढ़ पाता है. ग्रामीण भारत में 23 करोड़ लोग अल्पपोषित हैं, 50 फीसदी बच्चों की मृत्यु का कारण कुपोषण है. 15 से 49 वर्ष की आयु वर्ग में हर 3 में से एक व्यक्ति कमजोर है. सरकार लगभग 22.8 करोड़ टन अनाज उत्पादन के लक्ष्य को हासिल करने की जद्दोजहद में है परन्तु वर्ष 2015 में इसे अपनी जरूरत पूरा करने के लिए 25 से 26 करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी, यह पूरा हो पाना संदेहास्पद है. दुनिया की 27 प्रतिशत कुपोषित जनसंख्या केवल भारत में रहती है.

5 वर्ष से कम उम्र के 70 फीसदी बच्चों में खून की कमी है. 19 में से 11 राज्यों में 75 प्रतिशत से ज्यादा बच्चे एनीमिया के शिकार हैं. मतलब यह है कि भारत का विकास आंकड़ों का मकड़जाल है. यह लोगों की जिन्दगी में बदलाव का सूचक नहीं है.

1972-73 में प्रति व्यक्ति प्रतिमाह 15.3 किलोग्राम अनाज को उपभोग होता था, अब वह 12.22 किलोग्राम प्रतिमाह आ गया है. 2005-06 में एक सदस्य औसतन उपभोग 11.920 किलोग्राम था और वहीं 2006-07 में औसत भोजन का उपभोग घटकर मात्र 11.685 (1.97प्रतिशत कम) किलोग्राम प्रति व्यक्ति रह गया.

एक तरफ तो लोग भूखे सोने पर मजबूर हैं और दूसरी तरफ लाखों मीट्रिक टन अनाज खुले में पड़ा है. भारत में 415 लाख टन अनाज सुरक्षित रखे जाने की क्षमता है. 190 लाख टन अनाज केवल पन्नियों के नीचे असुरक्षित परिस्थितियों में पड़ा है. इस अनाज के त्वरित वितरण से एक बड़े हिस्से को राहत पहुंचाई जा सकती है. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के 35 किलो अनाज वितरित करने के निर्देश का भी पालन नहीं किया जा रहा है और 20 से 25 किलो अनाज ही बांटा जा रहा है। खुले में रखे इस अनाज का उपयोग इस गैप को खत्म करने में किया जा सकता है. 600 लाख टन अनाज के भंडारण के बावजूद इस राजनैतिक-प्रशासनिक इच्छाशक्ति का अभाव है कि इसे गरीब और सबसे वंचित वर्ग तक पहुंचाया जा सके.

आजादी के बाद से ही यह मान लिया गया कि विकास तो औद्योगिकरण से ही होगा. आर्थिक नीतियां ही ऐसी बनाई गईं, जिनमें खेती को ‘‘अकुशल श्रम’’ माना गया और खेती के श्रम के मूल्य को कम आंका गया. सरकारों द्वारा शहरी क्षेत्र, उद्योगों और नौकरशाहों को तरह-तरह की सब्सिडी भी दी गई, जिससे वे तो तेजी से सम्पन्न हुए और किसान, ग्रामीण मजदूर और गाँव गरीब होते गए.

खाद्यान्न उत्पादन में उपयोग की जा रही जमीन और पानी को छीनकर उद्योगों को देने में खाद्यान्न सुरक्षा कैसे सुनिश्चित होगी ? लाखों आदिवासियों को पालने वाले जंगलों को खदानों और फैक्ट्रियों के लिए नष्ट किया जा रहा है. इस पर रोक लगनी चाहिये.

खाद्य असुरक्षा का प्रमुख कारण है कृषि क्षेत्र के लगातार शोषण से उत्पन्न उसमें मौजूदा संकट. हालात यह हैं कि आज देश की 66 प्रतिशत आबादी सीधे कृषि पर निर्भर है, पर इस आबादी का देश की कुल कमाई में हिस्सा केवल 17 प्रतिशत है. दूसरी तरफ निजी कंपनियों का एक प्रतिशत से भी कम होने के बावजूद वह देश की 33 प्रतिशत कमाई पर अपना दावा करता है. असली ‘‘खाद्य सुरक्षा’’ तभी मिल सकती है जब न केवल शोषण और विस्थापन की नीतियाँ बदलें, बल्कि भारत की राजनैतिक अर्थव्यवस्था ही बदली जाए. जब तक देश से कुपोषण समाप्त न हो जाए तब तक खाद्यान्न के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया जाये.

अमीर देशों में पशु और पोल्ट्री में गरीब देशों से आयातित अनाज खिलाया जा रहा है जबकि हमारे देश के गरीब भूखे रह रहे हैं. खरीद सभी मंडियों से हो ताकि सरकारी खरीद का फायदा सभी इलाकों को मिले न कि सिर्फ पंजाब, हरियाणा, आंध प्रदेश और उत्तरप्रदेश के कुछ इलाकों से, जैसा कि फिलहाल होता है.

कई ऐसे इलाके हैं जहां खाद्यान्न की किल्लत है. इसलिए यह जरूरी है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से कमी वाले इलाकों में खाद्यान्न पहुंचाना केन्द सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए, जो जन वितरण प्रणाली का बुनियादी मकसद रहा है. हर ब्लॉक में अन्न भण्डारण के लिए भंडार होने चाहिए, वर्तमान में उचित भण्डारण की कमी के कारण हजारों टन अनाज सड़ रहा है. सरकार न तो इस अनाज के सुरक्षित भंडारण की व्यवस्था कर रही है और न ही इसे भूखे लोगों में वितरित कर रही है. स्थानीय खरीदी, भण्डारण और वितरण के जरिये खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये गांव स्तर पर अनाज बैंक स्थापित किये जायें.


विस्तारित पीडीएस के साथ नई खरीद नीति बनना जरुरी है. न्यूनतम समर्थन मूल्य पर मोटे पौष्टिक अनाज, दालें और तिलहन की खरीद इन फसलों को सहारा देंगी जो फिलहाल कम और अनिश्चित दाम और कम निवेश के चलते उपेक्षित है. मोटे अनाज और दालों का समर्थन मूल्य अभी बहुत कम है. दालों की कीमतों में हालिया चढ़ाव के दौरान भी किसान ने दालें 25-35 रूपये प्रति किलोग्राम के भाव पर बेची. मूंग का न्यूनतम समर्थन मूल्य 27.6 रूपये प्रतिकिलो, तुअर का 23 रूपये किलो था जबकि खुदरा भाव 65 से 120 रूपये प्रति किलो तक रहे.

60 गणतंत्र दिवसों का उत्सव मना चुके इस देश में भुखमरी और खाद्य सुरक्षा के सवाल भौतिक (यानी उत्पादन) के सवाल न होकर पराभौतिक (यानी राजनैतिक और आर्थिक नीतियां) हैं. आज की स्थिति को चिंतनीय माना जाना चाहिये जबकि 77 प्रतिशत लोग जीवन जीने के लिये प्रतिदिन महज 20 रूपये खर्च कर पाने की स्थिति में है और प्याज 60 रूपये, टमाटर40 रूपये, दालें 70 से 90 रूपये किलो के भाव से बिक रही हैं.

मुद्रा की कीमत जीवन की बुनियादी जरूरतों के सापेक्ष लगातार कम हो रही हो, तब यदि सरकार (जिनमें प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, कृषि मंत्री और योजना आयोग शामिल है) सार्वजनिक रूप से यह घोषणा करती हो कि मंहगाई के संकट को खत्म करना उसके बूते की बात नहीं है, तब तो हमें कम से कम यह सवाल पूछना ही चाहिये कि आखिर इस गणतंत्र को चला कौन रहा है? बार-बार यह साबित हुआ है कि कृषि मंत्रालय ने पिछले 5 सालों में बाजार की बड़ी ताकतों को लाभ पहुंचाने के लिये आपूर्ति को कम किया है, दाम चरम स्तर तक बढ़ने दिये हैं, काला बाजारी को नजर अंदाज किया है और इससे भी आगे बढ़कर सार्वजनिक रूप से यह कह कर उन्हें प्रोत्साहन दिया है कि बढ़ती कीमतों के दौर में भी सरकार चादर तान कर और मुंह ढंककर गहरी नींद में होने का नाटक करती रहेगी.

इन परिस्थितियों में सरकार जिन तर्कों को आधार बनाकर लोकव्यापी राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को नकार रही है, उनमें सबसे प्रमुख है कि सबको देने लायक अनाज देश में है ही नहीं ! पर यह तर्क एक झूठ है. यदि सरकार हर परिवार (23 करोड़ परिवार) को 50 किलो अनाज देना चाहे तो उसे केवल 138 लाख तक अनाज की जरूरत होगी जबकि देश के किसानों ने वर्ष 2008-09 में 219 लाख टन अनाज उगाया था. हम मानते हैं कि सभी 23 करोड़ परिवार सस्ता अनाज नहीं लेंगे और यदि 80 फीसदी परिवार ऐसा अनाज लेते हैं तो सरकार की जरूरत केवल 110 लाख टन की रहेगी. यानी देश में अनाज है. इसी तरह यदि इतने ही परिवारों को 5.25 किलो दालें दीं जाये तो केवल 1.15 करोड़ मीट्रिक टन दालों की जरूरत होगी जबकि उत्पादन 1.47 करोड़ मीट्रिक टन से ज्यादा है. जब एक परिवार को हर माह 2.8 किलो तेल देना होगा तो 61.8 लाख टन खाद्य तेल की जरूरत होगी और सभी स्रोतों को मिलाकर देख में वर्ष 2008-09 में 183 लाख टन खाद्य तेल की उपलब्धता थी.

मामला साफ है कि देश में खाद्यान्न पर्याप्त है. दूसरा बड़ा तर्क है कि लोकव्यापी खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने के लिये सरकार को 90 हजार करोड़ रूपये खर्च करने पड़ेंगे और इतना धन सरकार के पास नहीं है. सच्चाई यह है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद में से 18 प्रतिशत ही टैक्स के रूप में सरकार के पास आता है जबकि अमरीका में 28 प्रतिशत और स्केन्डेनेवियन देशों में यह अनुपात 45 से 50 प्रतिशत है.

गरीबी की रेखा बहिष्कार की प्रक्रिया को बुनती है जिसमें दलित, आदिवासी, एकल महिलाएं, वृद्ध बच्चे, विकलांग और दूसरे वंचित वर्ग खाद्यान्न योजनाओं से वंचित हो जाते हैं. इन्हीं परिस्थितियों में जब जरूरत के मान से हकों का निर्धारण नहीं होता है तब भ्रष्टाचार पनपता है और गैर-जवाबदेहिता की स्थिति में लोगों तक उनके अधिकार नहीं पहुंच पाते हैं. गरीबी की रेखा के छोटे होते जाने के कारण ज्यादातर लोग खुले बाजार के शोषण के शिकार होते हैं. भुखमरी से मुक्ति, जीवन के अधिकार, शोषण को चुनौती देते हुए समानता आधारित जवाबदेय व्यवस्थापक की स्थापना खेती-प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून का सर्वव्यापी होना ही एकमात्र विकल्प है.

एक ओर तो सरकार सेवा और उद्योगों से टैक्स ही कम लेती है और दूसरी ओर इस टैक्स पर भी भारी छूट दी जाती है. वर्ष 2009-10 में केन्द्र सरकार ने टैक्स में 5,02,229 करोड़ रूपये छूट दी जो कुल टैक्स संग्रह का 79.54 प्रतिशत है. इसी साल सोना, हीरा और आभूषणों में कस्टम ड्यूटी पर 39796 करोड़ रूपये की छूट दी गई. हमें मध्यमवर्गीय समाज को यह बताना होगा कि उनकी विलासिता और सुविधा के लिये सरकार तीन चौथाई जनसंख्या को भूखा रख रही है; क्या उन्हें यह स्थिति मंजूर है! किसान और आदिवासी इस गणतंत्र के मूल निवासी हैं, उनकी उपेक्षा करके बनाई गई कोई भी नीति समतामूलक और न्याय आधारित समाज की दिशा में ही बढ़ेगी; यह हमारे नीति निर्माताओं को स्वीकार कर लेना होगा.


(सचिन कुमार जैन)

All BJP chief ministers should declare assets: Advani

New Delhi: Pledging to set an example in the fight against black money, BJP-led NDA today said it would direct its chief ministers and senior most leaders to declare their assets and asked the government to make all efforts to bring Indian slush funds stashed in tax havens.

Senior NDA leaders held a press conference to present the report of a task force appointed by BJP to look into the issue of Indian black money stashed abroad and ways of dealing with the issue.

"We liked (the report) and the NDA also said it is appropriate that all those holding political office, whether we are members of Parliament, whether we are leaders of political parties recognised by the Election Commission....

".... or even Central office-bearers of the political parties, or MPs. We would like all of them to be obligated to tell the government that we have no money abroad," NDA Working chairperson L K Advani said.

The NDA leaders endorsed the suggestions of the report which targets corrupt politicians as well.

"There should be a general, not specifically against any persons, FIR against (those keeping black money abroad). It has been done in the case of terrorism in Punjab, in the North East... in Nagaland," Advani said.

The senior leader quoted a recent survey which claimed that the general perception among people about politicians is that around 60 per cent of them are corrupt.

Taking a cue from Advani, Punjab Chief Minister Prakash Singh Badal said, "A big issue has come up in the country...NDA chief ministers should first give in writing and announce their assets and tell the government that it can seize any black money they have."

Asked if he agreed with Badal and whether Karnataka Chief Minister B S Yeddyurappa should also declare his assets, Advani replied in the affirmative, saying all BJP and NDA chief ministers should do so.

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