Thursday, July 14, 2011

रिश्वत देने में अग्रणी संगठन

अक्सर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश में गरमागरम बहस चलती रहती है किन्तु मैं अनुभव करता हूँ कि भ्रष्टाचार की बहस में से मौलिक बात गायब है | सोम प्रकाश के मामले में हमारे सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि रिश्वत मात्र अनुचित काम को करने के लिए ही नहीं दी जाती है अपितु उचित कम को जल्दी करवाने के लिए भी दी जाती है क्योंकि समय ही धन है| विवेकाधिकार भ्रष्टाचार को जन्म देती है|इससे निष्कर्ष निकलता है कि भ्रष्टाचार को कम करने के लिए समय सारिणी निर्धारित कर व विवेकाधिकार समाप्त कर इस बुराई पर नियंत्रण पाया जा सकता है|


दूसरी ओर देखें तो हमें ज्ञात होगा कि व्यापारी एवं उद्योगपति वर्ग ने अपने हितों की रक्षा के लिए संगठन बना रखें हैं| विभिन्न प्रकार की कर चोरी , बिजली चोरी आदि के मामलों में भी ये संगठन अपने सदस्यों का बचाव करते हैं| सदस्यों से मासिक या वार्षिक वसूली की जाती है जो संगठन के पदाधिकारियों द्वारा वाणिज्यिककर , आयकर , उत्पाद शुल्क ,चुंगी , बिजली विभाग, खाद्य सुरक्षा आदि के अधिकारियों को भेंट स्वरूप दे दी जाती है और एवज में इन अपराधियों को अभयदान दे दिया जाता है| किसी वस्तु विशेष पर कर आदि में मंत्रालय या सचिवालय स्तर से राहत के लिए भी यही सुगम मार्ग अपनाया जाता है| रिश्वत के इस खेल में लेने देने वाले दोनों पक्षकार सुरक्षित रहते हैं| सदस्यों को व्यक्तिगत मोलभाव नहीं करना पडता और अधिकारियों को वसूली के लिए जगह जगह नहीं जाना पडता है| व्यापारी एवं उद्योगपति वर्ग द्वारा दी गयी इन भेंटों को वस्तु/सेवा की कीमत में जोड़कर आम जनता से वसूल कर लिया जाता है|इस प्रकार रिश्वत का अंतिम भार जनता पर ही पडता है |
इसी प्रकार परिवहन के मामलों में भी ऑटो चालक अपने संगठनों के माध्यम से स्थानीय ट्रेफिक पुलिस को हफ्ता देते हैं| बड़े परिवहन संचालक संगठन भी परिवहन एवं पुलिस को एक मुस्त अभयदान शुल्क देते हैं|ट्रक ड्राईवर अपने पास डायरी रखते हैं जिसमें समय समय पर पुलिस को रास्ते में दी जाने वाली रकम का पुलिस के हाथ से ही इंद्राज करवाकर हिसाब मालिक को सौंप देते हैं| ऐसा नहीं है कि भ्रष्ट लोक सेवक पकडे ही नहीं जाते हों किन्तु सशक्त व प्रभावी न्यायिक व्यवस्था के अभाव में वे दण्ड से बच जाते हैं |

चूँकि अपराधियों को दण्ड देना न्याय तंत्र का कार्य है और वह अभी तक इसमें अपेक्षा तक सफल नहीं है| अतः देश के गुणीजनों व प्रबुद्ध वर्ग से मेरा प्रश्न है कि जब तक देश में यह विकलांग न्याय प्रणाली है और रिश्वत देने वाले संगठन कार्यरत हैं तब तक भ्रष्टाचार पर नियंत्रण का कौनसा मार्ग है और कोई भी लोकपाल कानून कितना कारगर होगा इसका भी सहज अनुमान लगाया जा सकता है|भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए मात्र लोकपाल ही नहीं अपितु देश की न्यायिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन से मौलिक सुधार कर इसे ब्रिटिश काल से निकालकर विश्व स्तरीय बनाने की महती आवश्कता है |

Saturday, July 9, 2011

गोरे लोगों के काले कानूनों की मजबूत बेडियाँ

कानून और न्याय व्यवस्था का वैश्वीकरण


हमारे देश में विभिन्न सेवाओं के मानकीकरण व वैश्वीकरण की बात समय समय पर उठती रही है . किन्तु शताब्दियों पुराने अंग्रेजी कानूनों तथा उनके अधीन स्थापित न्याय व्यवस्था में कोई मौलिक परिवर्तन करने की इच्छाशक्ति का हमारे नेतृत्व में अभाव रहा है . नए मौलिक कानून नहीं बना कर शताब्दियों पुराने कानूनों में बार बार संशोधन करना समयातीत जीर्णशीर्ण कपडे की मरम्मत कर काम चलाने के समान है .जो कानून जिस देश , काल ,परिस्थितियों और शासन प्रणाली के लिए उपयुक्त थे वे सदैव उपयुक्त नहीं हो सकते . वैसे भी साम्राज्यवाद एकचक्रिय व विस्तारवादी धारणा पर आधारित है जबकि लोकतंत्र इसके विपरीत जनकल्याण के दर्शन की उपज है .आम व्यक्ति को प्रभावित करने वाले हमारे विद्यमान कानूनों की समसामयिक विदेशी कानूनों से तुलना करें तो हमें ज्ञात होगा कि हम सामान्य कानून तथा न्याय व्यवस्था में अंतर्राष्ट्रीय स्तर से बहुत पीछे हैं .फिर भी पूंजीपति वर्ग को प्रभावित करने वाले आयकर व कंपनी अधिनयम जैसे कानूनों में प्रतिवर्ष अनेक परिवर्तन किये जाते रहते हैं. हमारे लोक सेवक तथा न्यायालय आज भी साम्राज्यवादी अधिकारों का प्रयोग करते हैं जबकि जनता अभी भी जनतांत्रिक अधिकारों से वंचित है .यह सब इसलिए संभव है कि हमने अभी तक नए कानून बनाकर लोक सेवकों को दायित्व बोध नहीं कराया है तथा उनकी मनमानी स्वयंभू प्रक्रियाएं जारी हैं.
आज स्वतंत्रता के 64 वर्ष बाद भी राजपुरुष लोक सेवकों के अधिकारों में कोई कटौती अथवा दायित्वों में कोई बढ़ोतरी नहीं की गयी है जिससे यह सन्देश मिलता है कि हमारा लोकतंत्र अभी भी लोकसेवकों के बंधक है .विधि निर्माण में अत्यंत चतुराईपूर्वक कूटनीतिक शब्दजाल का प्रयोग किया जाता है ताकि किसी सरकारी सेवक की कोई जिम्मेदारी नहीं बने . यद्यपि मणिपुर राज्य की लोकप्रिय सरकार ने लोक सेवक दायित्व अधिनियम ,2006 बनाकर लोक सेवकों का दायित्व निर्धारित करने का प्रावधान किया है और अन्य सभी राज्य सरकारों व केन्द्र सरकार को ऐसा कानून बनाकर स्थित पर नियंत्रण पाना चाहिए .


हमारी व्यवस्था में किसी भी अधिकारी को दायित्वधीन बनाये जाने से परहेज किया गया है . हमारे यहाँ मुख्य न्यायाधिपति को कहीं भी जिम्मेदार नहीं बताया गया है . इंगलैंड में न्यायालय अधिनियम,2003 की प्रथम धारा में ही कहा गया है कि लोर्ड चांसलर (सुप्रीम कोर्ट का मुखिया) न्यायालयों के प्रभावी एवं दक्षतापूर्वक संचालन सुनिश्चित करने के कर्तव्याधीन है तथा वह अपने कर्तव्य निष्पादन की रिपोर्ट प्रतिवर्ष दोनों सदनों के समक्ष रखेगा व धारा 58 के अनुसार न्यायालयों के लिए वहाँ अलग से स्वतंत्र निरीक्षणालय स्थापित है . हमारी प्रणाली में उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को अधीनस्थ न्यायालयों पर न्यायिक एवं निरीक्षक दोनों वरिष्ठता प्राप्त है अतः निरीक्षण प्रणाली का कोई उपयोग व महत्व नहीं रह जाता है .किसी भी निकाय के सुचारू कार्यरत होने के लिए निरीक्षण एवं प्रशासनिक इकाई का अलग अलग होना आवश्यक है. निरीक्षण हमेशा अचानक होना चाहिए तथा पूर्व नियोजित निरीक्षण से स्वयं निरिक्षण का औचित्य समाप्त हो जाता है . न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए यह भी समान रूप से आवश्यक है कि इंग्लॅण्ड की भांति स्वयं न्यायपालिका का प्रशासनिक खंड, कम से कम हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट स्तर पर, न्यायिक कृत्यों से अलग एवं स्वतंत्र हो .यदि एक ही अधिकारी के पास न्यायिक एवं प्रशासनिक दोनों शक्तियां केंद्रित हों तो उनके प्रयोग पर प्रश्न चिन्ह लग सकता है .

इंग्लॅण्ड में आपराधिक प्रक्रिया नियम 2010 के नियम 3.2 के अंतर्गत अदालत के कर्तव्य का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि मामले की शीघ्र प्रगति के लिए एक समय सारिणी बनायीं जायेगी दूसरी ओर हमारे यहाँ स्वयम्भू प्रक्रिया अपनाकर मामले को अनिश्चित काल के लिए स्थगित करने हेतु “उचित समय पर” (Due Course) में डाल दिया जाता है जबकि ऐसे अस्पष्ट शब्दों का प्रयोग किसी नियम में नहीं है और संविधान के अनुसार किसी भी न्यायालय को सरकार की सहमति के बिना/कानून से असंगत प्रक्रियागत नियम बनाए का कोई अधिकार नहीं है .इस प्रकार संसद द्वारा बनाये गए कानूनों को भी प्रशासनिक आदेश की आड़ में निष्प्रभावी बनाना हमारे न्यायतंत्र के लिए बांयें हाथ का काम है . दूसरी ओर उस “उचित समय पर” में डाल दिये गए प्रकरण से बाद में दर्ज प्रकरणों में भी कुछ अपवित्र कारणों से पहले निर्णय दे दिए जाते हैं. न्यायालयों द्वारा इस प्रकार अनुच्छेद 14 द्वारा गारंटीकृत विधि के समक्ष समानता के अधिकार का खुला उल्लंघन किया जाता है और ऊपरी न्यायालय, जिन पर संविधान (अनुच्छेद 227)तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता(धारा 483)के अंतर्गत पर्यवेक्षण का दायित्व डाला गया है, मूकदर्शक बने रहते हैं.
विधि का अच्छा शासन कहता है कि आपवादिक परिस्थितियों को छोड़कर प्रकरणों का निपटान उनके दर्ज होने के वरीयता क्रम में हो .हमारी न्यायिक व्यवस्था में जवाबदारी का पूर्णतया अभाव है व पुनरीक्षण तथा मूल मामले दोनों के निपटान में समान समय लिया जाता है जबकि दोनों के लिए वांछित समय व श्रम में 1 व 30 का अनुपात हाई कोर्ट द्वारा माना गया है . वकीलों द्वारा स्थगन की मांग इसके लिए कोई स्वीकार्य बहाना नहीं हो सकता क्योंकि न्याय प्रशासन न्यायाधीशों का कार्य है जिसके लिए उन्हें जनता के धन में से भुगतान किया जाता है ,न कि वकीलों का और वे इसके लिए जिम्मेदार हैं.

हमारे न्यायालयों की प्रक्रिया खुली होकर भी गुप्त है क्योंकि एक गैर पक्षकार को किसी मामले का निरीक्षण आपवादिक परिस्थितियों में ही अनुमत है जबकि अमेरिका में न्यायिक अभिलेख इन्टरनेट पर ही उपलब्ध है और इंग्लॅण्ड में सुप्रीम कोर्ट नियम 2009 के नियम 39 (3) में प्रावधान है कि रजिस्ट्री द्वारा धारित सभी प्रलेख प्रेस अथवा जन सामान्य द्वारा निरीक्षण किये जा सकेंगे किन्तु राष्ट्रीय सुरक्षा, जन हित अथवा वाणिज्यक गोपनीयता के कारणों से रजिस्ट्रार मना कर सकेगा . अर्थात हमारे यहाँ निरीक्षण अपवाद है जबकि इंग्लॅण्ड में मनाही आपवादिक मामलों में ही की जा सकती है . अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाहियों की साथ साथ इलेक्ट्रोनिक रिकॉर्डिंग होती है तथा वह इन्टरनेट पर भी उपलब्ध रहती है .इंगलैंड की न्यायप्रणाली में बड़ी पारदर्शिता है तथा वहाँ मात्र सरकारी रिपोर्टें ही नहीं अपितु निजी संगठनों द्वारा किये गए सम्बंधित सर्वेक्षणों के विवरण स्वयं न्याय मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध है. इंग्लॅण्ड में सूचना के अधिकार को पर्याप्त महत्व दिया गया है तथा यह न्याय मंत्रालय का विषय है . इंग्लॅण्ड में सुप्रीम कोर्ट नियम 2009 एक सरल 19 पृष्ठीय प्रलेख है जबकि हमारे सुप्रीम कोर्ट नियम ,1966 जटिल 200 पृष्ठीय प्रलेख है .
हमारे यहाँ विधि आयोग मात्र एक राजकीय आदेश से स्थापित निकाय है जिसके दायित्व , अधिकार या उपयोग किसी संसदीय अधिनियम द्वारा परिभाषित नहीं हैं .स्मरण रहे कि वर्ष 1964 में स्थापित हमारा केन्द्रीय सतर्कता आयोग भी वर्ष 2003 से पूर्व इसी प्रकार बिना संसदीय कानून के कार्यरत निकाय रहा है . हमारे यहाँ विधि आयोग, राष्ट्रीय पुलिस आयोग आदि अपनी रिपोर्टें सम्बंधित मंत्रालय को प्रस्तुत करके अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं . जब तक शासन में पारदर्शिता अपनाते हुए इन रिपोर्टों पर की गयी कार्यवाही , मानी अथवा न मानी गयी सिफारिशों से संसद के माध्यम से जनता को अवगत नहीं कराया जाता तब तक इन कमेटियों , आयोगों पर होने वाला व्यय जनता के दृष्टिकोण से अपव्यय है और ये रिपोर्टें रद्दी कागज के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकती .इसके विपरीत इंग्लॅण्ड में विधि आयोग 1965 के विधि आयोग अधिनियम द्वारा स्थापित एक निकाय है तथा धारा 3 क के अनुसार विधि आयोग के प्रस्तावों के मानने के सम्बन्ध में संसद के दोनों सदनों के समक्ष रिपोर्टें प्रस्तुत की जाती हैं. हमारे देश में भी संसदीय अधिनयम बनाकर विभिन्न कमेटियों एवं आयोगों की कार्यप्रणाली पर नियंत्रण रखने की आवश्यकता है .इनके द्वारा प्रस्तुत रिपोर्टों पर सम्बंधित मंत्रालय द्वारा 30 दिन के भीतर प्रस्तावों के मानने के सम्बन्ध में संसद के दोनों सदनों के समक्ष रिपोर्टें प्रस्तुत की जानी चाहिए